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जलवायु परिवर्तन से जीवों का रंग कैसे बदलेगा? चलिए पता करें

उन्नीसवीं सदी में किए गए एक दावे पर अब बहस छिड़ गई है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि जानवरों के रंग-रूप में किस तरह के बदलाव लाएगी।

1800 के दशक की शुरुआत में जीव विज्ञानियों ने इस सम्बंध में कुछ नियम दिए थे कि बदलते तापमान का पारिस्थितिकी और जैव विकास पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा। इनमें से एक नियम था कि गर्म वातावरण में जानवरों के शरीर के उपांग (जैसे कान, चोंच) बड़े होंगे, ये शरीर की ऊष्मा को बाहर निकालने में मददगार होते हैं।

एक अन्य नियम के अनुसार बड़े शरीर वाले जीव आम तौर पर ध्रुवों के आसपास रहते हैं, क्योंकि बड़ा शरीर ऊष्मा के संरक्षण में मदद करता है। और

साल 1833 में जर्मन जीव विज्ञानी कॉन्स्टेंटिन ग्लोगर ने बताया था कि गर्म इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण आम तौर पर गहरे रंग का होता है, जबकि ठंडे इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण हल्के रंग का।

स्तनधारियों में गहरे रंग की त्वचा और बाल हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा देते हैं, इसलिए सूर्य के प्रकाश से भरपूर इलाकों में गहरा रंग फायदेमंद होता है। पक्षियों में भी गहरे रंग के पंखों में मौजूद विशिष्ट मेलेनिन रंजक बैक्टीरियल संक्रमण से सुरक्षा देते हैं।
जुलाई में, चाइना युनिवर्सिटी ऑफ जियोसाइंसेज़ के ली तियान और युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के माइकल बेंटन ने इन नियमों का उपयोग कर पूर्वानुमान लगाया कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन (तापमान में वृद्धि) जीवों के शरीर में किस तरह के बदलाव ला सकता है। इनके आधार पर उन्होंने बताया कि पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होने पर अधिकांश जानवर गहरे रंग के हो जाएंगे।

अन्य जीव विज्ञानियों का कहना


लेकिन इस पर अन्य जीव विज्ञानियों का कहना है कि मामला इतना भर नहीं है। मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ऑर्निथोलॉजी के पक्षी विज्ञानी कैस्पर डेल्हे पिछले कुछ वर्षों से ग्लोगर के नियम की जगह एक अधिक सटीक नियम देने की कोशिश में हैं। तियान और बेंटन के इस अध्ययन पर डेल्हे और उनके साथियों ने करंट बायलॉजी में अपनी प्रतिक्रिया दी है।

इसमें वे कहते हैं कि ग्लोगर ने अपने नियम में तापमान और आर्द्रता दोनों कारकों को मिश्रित कर दिया है। आर्द्रता या नमी के बढ़ने पर पौधे हरे-भरे होते हैं, जो जीवों को शिकारियों से छिपने में मदद करते हैं। इसलिए नमी बढ़ने पर आसपास के परिवेश में घुलने-मिलने के लिए जीवों के शरीर का रंग गहरा होता है। कई गर्म स्थान वाष्प युक्त होते हैं, लेकिन तस्मानिया जैसे ठंडे वर्षा वनों में पक्षियों का रंग गहरा होगा।

डेल्हे कहते हैं यदि तापमान बढ़ने के साथ-साथ आर्द्रता नहीं बढ़ती यानी आर्द्रता नियंत्रित रहती है तो ग्लोगर के नियम के बिल्कुल उलट स्थिति बनेगी – गर्म वातावरण में जीवों का रंग हल्का होगा, खासकर ठंडे रक्त वाले जीवों का (यानी ऐसे जीव जिनके शरीर का तापमान बाह्य वातावरण पर निर्भर है)। कीट और सरीसृप गर्मी के लिए बाहरी स्रोत (सूर्य के प्रकाश) पर निर्भर होते हैं। ठंडी जगहों पर, इनकी त्वचा का रंग गहरा होता है जो उन्हें पर्याप्त मात्रा में ऊष्मा सोखने में मदद करता है। यदि जलवायु गर्म हुई तो उनके शरीर का रंग हल्का पड़ जाएगा। इसे डेल्हे ‘थर्मल मेलानिज़्म परिकल्पना’ कहते हैं।

तियान और बेंटन डेल्हे के स्पष्टीकरण को स्वीकार करते हैं। लेकिन फिर भी वे कुछ ऐसे स्थानों के उदाहरण देते हैं जहां गर्म जलवायु होने पर जीवों के रंग के बारे में की गई उनकी भविष्वाणी सही होगी। फिनलैंड में टावनी उल्लू दो तरह के रंग में पाए जाते हैं – गहरे कत्थई रंग में या सफेदी लिए हुए हल्के स्लेटी रंग में। हल्का स्लेटी रंग उल्लुओं को बर्फ की पृष्ठभूमि में छिपे रहने में मदद करता है।

लेकिन फिनलैंड में हिमाच्छादन कम होने के साथ कत्थई रंग के उल्लुओं की संख्या बढ़ी है। 1960 के आसपास वहां गहरे रंग के उल्लुओं की आबादी लगभग 12 प्रतिशत थी जो 2010 में बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो गई।

शोधकर्ता यह भी मानते हैं कि यदि तापमान और आर्द्रता दोनों ही बदलती है तो जीवों में होने वाले जलवायु सम्बंधी रंग परिवर्तन को समझना थोड़ा पेचीदा होगा। मसलन, कुछ जलवायु मॉडल यह भविष्यवाणी करते हैं कि अमेज़ॉन के जंगल भविष्य में गर्म और शुष्क होते जाएंगे जिससे जीवों का रंग हल्का हो जाएगा, लेकिन साइबेरिया के बोरियल जंगल गर्म और नम होंगे तो वहां ये पूर्वानुमान ठीक नहीं बैठेंगे। बेंटन का कहना है कि भौतिकी या रसायन विज्ञान के विपरीत जीव विज्ञान में कोई भी नियम एकटम सटीक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। यह गुरुत्वाकर्षण की तरह नहीं है, जो सभी जगह लागू होगा।
यदि किसी तरह के सामान्य रुझान दिखते भी हैं तब भी यह कहना मुश्किल ही होगा कि कोई विशिष्ट प्रजाति किसी परिवर्तन पर किस तरह प्रतिक्रिया देगी। वाशिंगटन

विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी लॉरेन बकले ने अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तितली के रंग पर अध्ययन किया है। वे बताती हैं कि तितलियां धूप तापते हुए ऊष्मा सोखती हैं, लेकिन उनके पूरे पंखों की बजाए पंखों की निचली सतह पर मौजूद मात्र एक छोटे से हिस्से से ऊष्मा सोखी जाती है। इस स्थिति में तितलियों के पंखों का रंग चाहे कुछ भी रहे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऊष्मा तो पंखों के एक छोटे हिस्से से सोखी जा रही है।

अगर हम यह नहीं जानते कि कोई जीव अपने आसपास के पर्यावरण से वास्तव में किस तरह संपर्क करता है, तो हम उसके बारे में किसी भी तरह के ठीक-ठाक अनुमान नहीं लगा पाएंगे। जीवों पर पर्यावरण के प्रभावों को समझने के लिए हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि कोई जीव अपने वातावरण के साथ किस प्रकार संपर्क करता है।

जीवों में रंग परिवर्तन जीवों की अपनी तापमान-नियंत्रक प्रणाली पर भी निर्भर करता है।

आम तौर पर असमतापी जीवों का रंग हल्का होता जा रहा है, और पक्षियों और स्तनधारियों में विभिन्न तरह के प्रभाव दिखाई दिए हैं। बकले सुझाव देती हैं कि अपने अनुमानों को बेहतर करने के लिए हम संग्रहालय में रखे नमूनों का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि ये लंबी अवधि में आए परिवर्तनों का अंदाज़ा दे सकते हैं।

हालांकि समय के साथ इनके रंग बदलने की भी संभावना है। शोधकर्ताओं की अब भृंग और घोंघों को गर्म टैंकों में रखकर रंग परिवर्तन सम्बंधी अध्ययन करने की योजना है।
लेकिन जिस तेज़ी से पृथ्वी गर्म होती जा रही है उससे वैज्ञानिकों के पास जल्द ही इस विषय पर व्यापक डैटा उपलब्ध होगा। और यदि जीवों के प्राकृतिक आवास ही नष्ट हो गए और प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं तो जीवों के बदलते स्वरूपों पर लगाए गए हमारे सारे पूर्वानुमान धरे के धरे रहे जाएंगे।
स्रोत फीचर्स

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