आज कल कुछ लिबरल और नाम निहाद दानिशवर बड़े जोर व शोर से वावेला कर रहे हैं कि :
•काबा के गिर्द घूमने से पहले किसी गरीब के घर घूम आओ!
•मस्जिद को कालीन नहीं किसी भूूखे को रोटी दो!
•हज व उमराह पर जाने से पहले किसी नादार की बेटी की रुखसती का खर्चा उठाओ!
•मस्जिद में सीमेंट की बोरी देने से अफजल है कि किसी बेवा के घर आटे की बोरी दे
ज़कात के पैसों से मदरसा व बेवाओं को देने से बेहतर है कि उनको अंग्रेज़ी तालीम दो।
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याद रखें
दो नेक आमाल को इस तरह तकाबुल में पेश करना कोई दीनी खिदमत या इंसानी हमदर्दी नहीं बल्कि ऐन जिहालत है।
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अगर तकाबुल ही करना है तो दीन और दुनिया का करो और यूं कहो:
•15, 20 लाख की गाड़ी उस वक़्त लो जब मुहल्ले में भूका सोने वाला कोई न हो!
• 40, 50 हजार का मोबाइल फोन उस वक़्त लो जब मुहल्ले में कोई भीक मांगने वाला न हो!
• कमरे में Ac, cooler तब लगाओ जब गर्मी में बगैर बिजली के सोने वाला कोई न हो!
•ब्रांडेड कपड़े उस वक़्त खरीदो जब सड़क पर फटे कपड़े पहनने वाला कोई न हो!
ज़कात की रक़म अल्लाह के नाम पर ले कर कान्वेंट की तालीम के लिए उन ही बच्चों में उस वक़्त खर्च करो जब आपके घर के बच्चों में दिनी तालीम का भी जज़्बा हो।
ये करोड़ों की गाडि़यां, लाखों के मोबाइल फोन और हजारों के खिलौने खरीदते वक़्त उन दानिशरों को गरीब क्यों नहीं याद आते?
आखिर ये चिढ़ काबा, मस्जिद, हज व उमरह व ज़कात ही से क्यों है?