क्या आप साइबोर्ग बन चुके हैं? जब इंसान और मशीन एक हो रहे हैं

तकनीक का मानव शरीर से मिलन : क्या यह आधुनिक जीवनशैली हमें साइबोर्ग नहीं बनाती
साइबोर्ग : सुबह उठते ही मोबाइल, दिनभर लैपटॉप और शाम को सोशल मीडिया – क्या यह आधुनिक जीवनशैली हमें साइबोर्ग नहीं बनाती? डोना हैरवे के “ए साइबोर्ग मेनिफेस्टो” ने 1985 में इस विचार को प्रस्तुत किया। यह निबंध 1991 में उनकी पुस्तक “सिमियन्स, साइबॉर्ग्स और वीमेन” में भी प्रकाशित हुआ। हैरवे का मानना है कि तकनीक अब सिर्फ उपकरण नहीं, बल्कि हमारी वास्तविकता है।
तकनीक: एक नया सामाजिक क्रांति
आज साइबोर्ग केवल मशीन नहीं, बल्कि बदलाव का प्रतीक है। इंसान और तकनीक मिलकर एक नई सामाजिक क्रांति ला रहे हैं। एक कुम्हार मोटर चालित चाक का उपयोग करता है। इसी तरह, एक दलित लड़की स्मार्टफोन से ऑनलाइन कक्षाएं अटेंड करती है। वे सिर्फ उपभोक्ता नहीं, बल्कि सशक्त तकनीकी प्राणी – साइबोर्ग – बन जाती हैं।
पहचान की सीमाओं को तोड़ता साइबोर्ग
हैरवे का तर्क है कि साइबोर्ग पारंपरिक सीमाओं को तोड़ता है।
ये सीमाएं समाज में स्त्री/पुरुष, मनुष्य/जानवर और प्रकृति/मशीन जैसी हैं।
आज महिलाओं की पहचान को एक शब्द में बांधना मुश्किल है। उनकी ज़िंदगी जाति, वर्ग, संस्कृति और समाज से प्रभावित है। पहले महिलाओं के मुद्दे समान माने जाते थे। लेकिन अब हर महिला का अनुभव अलग है।

सद्भाव: एकजुटता का नया आधार
लेखिका ने सुझाव दिया कि महिलाओं को समानता के बजाय सद्भाव से जुड़ना चाहिए।
इसका अर्थ है साझा लक्ष्यों और विचारों पर आधारित सहयोग।
इस दृष्टिकोण से पहचान स्थिर नहीं रहती, बल्कि लचीली होती है।
“साइबोर्ग” का विचार इस बदलाव का प्रतीक है। यह तकनीकी और पहचान की सीमाओं को तोड़ता है। साथ ही, यह नई संभावनाओं और रास्तों को दिखाता है। महिलाएं अपनी भिन्नताओं को स्वीकार कर नई पहचान बना सकती हैं।
डिजिटल युग में महिलाओं का सशक्तिकरण
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने काम करने के तरीकों को बदल दिया है।
खासकर महिलाओं के लिए यह बदलाव महत्वपूर्ण है।
कभी घरेलू भूमिका तक सीमित महिलाएं अब तकनीक से हर क्षेत्र में सक्रिय हैं।
टेलीवर्किंग और ऑनलाइन व्यापार ने महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत किया है। इसके अलावा, ऐप आधारित सेवाओं ने उन्हें सार्वजनिक मंचों पर पहचान दिलाई है।
भारतीय संदर्भ में साइबोर्ग
डोना हैरवे का साइबोर्ग विचार भारतीय संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
एक आदिवासी लड़की स्मार्टफोन से शिक्षा प्राप्त कर रही है। दूसरी ओर, एक दलित महिला सोशल मीडिया पर अधिकारों की बात कर रही है। ये महिलाएं सिर्फ तकनीक की उपभोक्ता नहीं हैं। बल्कि, वे सामाजिक बदलाव की निर्माता हैं।
चुनौतियां और संभावनाएं
हालांकि, तकनीकी सशक्तिकरण पूरी तरह संतुलित नहीं है। होमवर्क इकोनॉमी में महिलाएं असुरक्षित और कम वेतन वाली परिस्थितियों में काम कर रही हैं। फिर भी, तकनीक ने महिलाओं की पहचान और श्रम को नई परिभाषा दी है। वे पारंपरिक भूमिकाओं को चुनौती दे रही हैं। साथ ही, नए सामाजिक-सांस्कृतिक स्थान बना रही हैं। साइबोर्ग अब एक तकनीकी इकाई नहीं, बल्कि एक सामाजिक संभावना है।
निष्कर्ष: तकनीकी और मानवीय एकता
साइबॉर्ग का रूप आज ज्यादा व्यावहारिक है। तकनीक और मानवता एक-दूसरे में समाहित हो गए हैं।
इंटरनेट मीडिया इन्फ्लुएंसर अपनी डिजिटल पहचान को वास्तविक व्यक्तित्व से जोड़ते हैं।
प्रोस्थेटिक अंग और पेसमेकर शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाते हैं।
सैन्य प्रौद्योगिकियाँ मानव और मशीन के संयोजन को दिखाती हैं।
इससे स्पष्ट है कि तकनीकी और शारीरिक रूप से हम मिलकर काम कर रहे हैं।
डोना हैरवे की थ्योरी ने नारीवाद, तकनीक और पहचान को देखने का नजरिया बदला है।
यह पारंपरिक द्वैधताओं को तोड़ती है। यह एक लचीले और बदलते हुए अस्तित्व की बात करती है।
सन्दर्भ: डोना जे. हैरेवे, “सिमियन्स, साइबॉर्ग्स और वीमेन:
द रीइनवेंशन ऑफ नेचर”, रूटलेज़, न्यू यॉर्क, 1991, पृष्ठ संख्या: 149 से 181, ₹ 3,469, ISBN: 9780415903875
आभार: अपने शोध निदेशक डॉ. केयूर पाठक (असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) के प्रति।
लेखक सोशल-मीडिया पर समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्विद्यालय में शोधरत हैं
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