सुबह के साढ़े दस बज चुके थे। पत्रकार हरिराम अपनी उस रजाई के अंदर ठंड से नूराकुश्ती कर रहा था, जिसमें या तो सिर आ सकता था या फिर पैर। पत्नी चिंताबाई कबसे उससे कह रही थी, कि नई रजाई ले लीजिए। हरिराम ने वादा किया था इंक्रीमेंट के बाद ले लेंगे। लेकिन जब इंक्रीमेंट हुआ, तो होश फ़ाख्ता हो गए।
संपादक तोपचंद ने बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। मन लगाकर काम करो…मुझे हफ्ते में एक बाईलाइन तो चाहिए ही…इस अफसर के खिलाफ खबर लाओ…उस अफसर को निपटाओ…यहां जाओ..वहां जाओ…सब किया, लेकिन सैलरी बढ़ी चार परसेंट। थाली में आखिरी निवाले के बाद जितने दाने बचे थे, उन्हीं दानों को मिलाकर यह चार परसेंट बना था, जबकि चम्मचलाल ने 17 परसेंट हासिल किए थे। तो इस साल चटनी से भी कम बढ़ी हुई सैलरी ने पूरा साल खट्टा कर दिया था और हरिराम को इतना गरम कि उसे यकीन था कि गुस्से की आग में ये ठंड तो यूं ही निकल जाएगी। उसे तोपचंद की वह बात रह-रहकर याद आती थी कि निष्काम कर्म करो, फल की चिंता मत करो…हरिराम ने वही किया, बाद में तोपचंद ने आखिरी गोला दागते हुए कह दिया- मैंने तो पहले ही कहा था- फल की चिंता मत करो..।
हरिराम ऐसे मौकों पर माता-बहनों को याद करता हुआ बुड़बुड़ाना शुरू कर देता था। लेकिन ज्यादा नाराज इस बात पर था कि चम्मचलाल की सैलरी ज्यादा क्यों बढ़ गई? उसका ग्रेड बढ़ गया। उससे प्रमोशन मिल गया। चम्मचलाल के बारे में भी जानिए। उसकी दिनचर्या कुछ ऐसी थी कि संपादक तोपचंद के आने के पहले वह कैबिन के पास आकर अख़बार पढ़ता हुआ मिलता। लाल रंग की कलम से काली स्याहियों पर गोला लगा-लगाकर तैयार रहता। जैसे ही संपादत तोपचंद आता- सर प्रणाम, कहकर खड़ा होता और उन लाल गोले से रंगे अखबार को संपादक तोपचंद को थमा देता। इन लाल गोलों को देखकर मिटिंग में तोपचंद के मुंह से गालियों के गोले छूटने लगते। एक-एक कर सारे रिपोर्टर्स को बुलवाता और गोल घेरे के बारे में ऐसे बतलाता, जैसे उसने घर से गोला तैयार कर लाया हो। सब जानते थे, काम चम्मचलाल है, पर चम्मचलाल पर अंगुली उठाने का काम कौन करे? आफिस की तमाम रिपोर्ट उसी के जरिए तोपचंद तक जाती थी।
चम्मचलाल का एक ही फंडा था- बने रहो पगला, काम करेगा अगला…। एक ही मंत्र था – हे संपादक, तुभ्यम नमामी, हे लक्ष्मीदातां तुभ्यम नमामी …। अर्थात हे मेरे संपादक, मैं आपको नमन करता हूं, हे मेरे धन के स्रोत मैं आपकी वंदना करता हूं। इस मंत्र से संपादक के चैंबर में अदृश्य धुएं सा निर्माण होता, बैकग्राउंड में शंखध्वनि और देवताओं के चारण गीत की गूंज सुनाई देती और संपादक का दिव्य प्रागट्य होता और लगता कि आशीर्वाद की मुद्रा में संपादक तोपचंद कह रहे हों….हे वीर चम्मच उठो, अपने नेत्र खोलो…मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं। मांगो- क्या वर चाहते हो। चम्मचलाल- हे भक्तवत्सल प्रभु! मैंने दिन-रात आपका नाम लिया है, आपको जपा है, 108 मालाएं फेरी हैं, मैं आपके समक्ष तुच्छ सा रिपोर्टर हूं।
केवल इतना चाहता हूं प्रभु कि जब-जब अवसर आए, आपकी कृपा सबसे पहले मुझ पर ही बरसे…। तोपचंद तथास्तु कहकर मुस्कुराते हुए धुंए और दिव्य ध्वनि के साथ अंर्तध्यान हो गए।
इस दिव्य अनुभूति को केवल संपादक तोपचंद और चम्मचलाल ही अनुभव कर सकते थे। बाकी तो सब कैमिस्ट्री की भाषा में CH2SO4 यानी चूतियम सल्फेट थे, जो मंत्र को जान ही न पाए। खैर, मीटिंग शरू हुई। कलेक्टर मांगेलाल ने तमतमाते हुए हरिराम से कहा- अरे, कलेक्टर मांगेलाल ने कल दो बच्चों को चॉकलेट लेकर दी थी, वो खबर कहां है? हरिराम ने कहा- अरे सर, ये एसाइमेंट तो आपने चम्मचलाल को दी थी। तोपचंद का सिर चम्मचलाल की तरफ घूमा।
चम्मचलाल ने प्रणाम की मुद्रा में जवाब दिया- सर (प्रभु), आपके आदेशपूर्ति हेतू मैं कलेक्टर मांगेलाल साहब के बंगले गया था। मांगेलाल जी दो गरीब बच्चों को बुलवाया था। पिछली दिवाली के चॉकलेट के बचे हुए पैकेट भी मंगवा लिए थे, किंतु हरिराम जी सूखे की रिपोर्टिंग के लिए हमारे फोटोग्राफर चित्रसेन को अपने साथ ले गए। इसलिए कलेक्टर मांगेलाल जी ने यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया। आज बुलाया है। तोपचंद का मुंह फिर से हरिराम राम की तरफ खुल गया। गोले बरसने लगे। हरिराम सोचने लगा- हो गया काम, जय श्री राम…रजाई तो अगले साल भी आने से रही।