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हुज़ूर ग़ौसे आज़म “रज़ियल्लाहु तआला अन्हु” बचपन के वाक्यात पार्ट-2

Gaus Pak Ki Karamat: पैदा होते ही मुस्कुराए, माँ के पेट में याद किए 18 पारे, जानें अद्भुत बचपन

मा-हम्ह मोहताज तू हाजत रवा
अल मदद या गौसे आज़म सय्यिदा

तर्जुमा : जो जैसा भी मोहताज हो आप उसके हाजत रवा हो, तो ऐ हुज़ूर गौसे आ’ज़म (Gaus Pak) رضي الله تعالي عنه हमारी मदद फरमाइये । आमीन …

अल्लाह जब चाहे तब अपने महबूब बंदों की करामातें भी दुनियां वालो पर ज़ाहिर कर देता है । और फिर ये तो रब के महबूब हुज़ूर गौस पाक है, जिनकी शान और मर्तबे को पैदा होते ही रब ने बतला कर ऐलान कर दिया की ए दुनिया वालो मेरे इस महबूब को तुम अपनी तरह मत समझो।




हुज़ूर ग़ौसे आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु की करामातें। पैदा होते ही रब ने ज़ाहिर करवा दी थीं। आपने पिछली पोस्ट में यह पढ़ा ही होगा। दूसरे बच्चे रोते हुए पैदा होते हैं। मगर आप मुस्कुराते हुए दुनिया में तशरीफ़ लाए। आपकी वालिदा को भी पैदाइश के वक़्त। कोई तकलीफ़ नहीं हुई।

बचपन के चमत्कारी वाक़्यात

आसमान की सैर और दाई माँ का डर

आपकी शक्ल-ए-मुबारक इतनी बा-रौब थी। कोई शख्स आपको मोहब्बत से देख सकता था। लेकिन किसी और इरादे से देर तक नहीं देख सकता था। अल्लाह ने आपको मज़हर-ए-जमाल-ए-मुस्तफ़ाई बनाकर भेजा था। लिहाज़ा आप बेहद खूबसूरत थे।

बचपन में कुछ ऐसी बातें ज़ाहिर हुईं। जो अक्ल को हैरान कर देती थीं। आपको दूध पिलाने वाली दाई माँ फरमाती हैं। उन्होंने कई बार देखा कि आप उनकी गोद में होते थे। आप आसमान की तरफ़ देखकर ख़ुश होते थे। कभी चाँद-सितारों को देखते थे, कभी सूरज को। लगता था मानो आप किसी से बातें कर रहे हों।

कभी-कभी आप गोद से अचानक ही उछल जाते थे। लेकिन ज़मीन पर नहीं आते थे। आप आसमान में परवाज़ करने लगते थे। कभी चाँद-सितारों के क़रीब नज़र आते। कभी सूरज के करीब आपका अक्स दिखता। यह देखकर दाई माँ घबरा उठती थीं। मगर अगले ही पल आप गोद में मुस्कुराते नज़र आते। यह माजरा देखकर दाई माँ कुछ समझ नहीं पाती थीं। उन्हें लगता था कि यह हक़ीक़त था या नज़रों का धोखा।

वालिदा का यकीन और सलाह

जब यह बात उन्होंने आपकी वालिदा को बताई। तो आपकी वालिदा ने फ़रमाया। “बेशक़ मेरा बेटा अल्लाह का महबूब और ख़ास बंदा है।” “फ़रिश्ते अक्सर उनके साथ होते हैं।” “वे उन्हें सारे जहाँ की सैर करवाने ले जाते हैं।” “और पल में ही वापस भी ले आते हैं।” “लिहाज़ा तुम फ़िक्र मत करो।”

फ़िर आपकी वालिदा ने दाई माँ को समझाया। “इस बात को किसी और को मत बतलाना।” “कोई यकीन नहीं करेगा।”

चलने का अंदाज़ और इल्म का आलम

जब आपने चलना शुरू किया। तो वालिदा ने देखा कि आप दूसरे बच्चों की तरह। कभी लड़खड़ाए नहीं, कभी गिरे नहीं। आप इस शान से चलते कि लोग आपको देखते रह जाते। आपके ज़ेहन और इल्म का यह आलम था। दुनिया में तशरीफ़ लाने से पहले ही। माँ के पेट में रहकर क़ुरआन के 18 पारे। आपने हिफ़्ज़ (याद) कर लिए थे।

मदरसे में उस्ताद भी हुए चकित

जब आप कुछ और बड़े हुए। तो आपको मदरसे में दाख़िल कराने के लिए ले जाया गया। उस्ताद ने जब आपको देखा तो बेहद ख़ुश हुए। आपकी रमज़ान के रोज़े रखने वाली करामात मशहूर हो गई थी। सभी लोग आपको जानने लगे थे।

उस्ताद ने ख़ुश होकर आपसे पूछा। “बेटे, क्या तुम्हें क़ुरआन की कोई आयत याद है?” “तुमने घर में कुछ सीखा है?” आपने जवाब में गर्दन हिलाकर ‘जी’ कहा। उस्ताद ने कहा, “तो ठीक है बेटे।” “जो कुछ भी आपको आता हो, पहले उसे सुनाओ।” फिर आपके उस्ताद ने सुनने के लिए आँखें बंद कर लीं।

18 पारे सुनकर उस्ताद हैरान

आपने क़ुरआन शरीफ़ बिस्मिल्लाह हिर्रहमान निर्रहीम से शुरू किया। इत्मीनान से पढ़ते हुए पूरा पहला पारा ख़त्म कर दिया। उस्ताद ताज्जुब से इस बच्चे को देखते रहे। आपकी आवाज़ इतनी मीठी थी। उस्ताद चाहते थे कि आप रुकें नहीं, पढ़ते ही रहें।

आप पहला पारा पढ़कर रुके नहीं। आपने एक-एक कर पूरे 18 पारे उस्ताद को सुना दिए। उस्ताद के तो होश-ओ-हवास गुम हो चुके थे। उन्हें समझ नहीं आया कि वह इस बच्चे को क्या कहें। और फिर उनके मुँह से बेसाख्ता ‘सुब्हान अल्लाह’ निकलता रहा।

आपके उस्ताद ने आपसे पूछा। “ऐ बेटे अब्दुल क़ादिर, यह तो बतलाओ।” “यह सब तुमने कब सीखा? तुम्हें आख़िर यह किसने सिखाया?”

तब आपने जवाब दिया। “ऐ उस्तादे मोहतरम, जब मैं अपनी माँ के शिकम-ए-मुबारक में था।” “मेरी वालिदा रोज़ाना कलाम पाक की तिलावत करती थीं।” “मेरी माँ को 18 पारे हिफ़्ज़ थे।” “जिसे मैं भी हमेशा सुनता था।” “इस तरह सुनकर मैंने 18 पारे हिफ़्ज़ कर लिए।” सुब्हान अल्लाह!

माँ के पेट में ना सिर्फ़ आपने सुनकर 18 पारे हिफ़्ज़ किए। बल्कि हिफ़्ज़ हो जाने के बाद इसे रोज़ाना पढ़ा भी करते थे। सुब्हान अल्लाह!

फ़रिश्तों की सोहबत और ज़ुबान से कलाम

बच्चे की इस करामात को सुनकर उस्ताद चकित रह गए। वह समझ गए कि यह कोई मामूली बच्चा नहीं है। आप पैदाइश के बाद से ही जीलान में ही नहीं। बल्कि दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो चुके थे। उस्ताद ने पहली नज़र में ही समझ लिया। कि आप अल्लाह के वली हैं।

फ़रिश्ते भी थे हमेशा साथ

बचपन से ही फ़रिश्ते आपके साथ हमेशा रहते थे। अपने बारे में ख़ुद गौसे-आज़म ने फ़रमाया है:

“जब मैं मदरसे में पढ़ने के लिए। अपने घर से तन्हा निकलता था। तो मैं अपने चारों ओर फ़रिश्तों को चलते हुए देखता था।”

“जब मदरसा पहुँचता, तो मैं उन्हें यह कहते हुए सुनता।” “कि अल्लाह के वली के लिए रास्ता दीजिए।”

“यहाँ तक कि जब तक वे तशरीफ़ न रखते।” “वह फ़रिश्ता अदब से खड़ा ही रहता।” सुब्हान अल्लाह!

आपने यह भी बतलाया कि। रोज़ाना एक फ़रिश्ता इंसान की शक्ल में आता। और साथ में मदरसा ले जाता।

वो फ़रिश्ता लड़कों को आदेश देता। कि मेरे लिए मजलिस और फैलाएँ। फ़िर वह फ़रिश्ता भी मेरे पास ही रहता।

यहाँ तक कि मैं अपने घर वापस आ जाता।

उस वक़्त मुझे यह पता नहीं था कि यह फ़रिश्ता है।

एक दिन मैंने उससे पूछा। “आप कौन हैं?” “मेरे साथ क्यों रहते हैं?”

तो उस फ़रिश्ते ने उत्तर दिया। “मैं एक फ़रिश्ता हूँ।”

“अल्लाह तआ़ला ने मुझे आपके साथ रहने के लिए भेजा है।”

“कहा है कि मैं उस वक़्त तक मदरसे में।”

“आप के साथ रहूँगा, जब तक कि आप वहाँ हैं।” सुब्हान अल्लाह!

गाय का इंसानी ज़ुबान में कलाम

हज़रत ग़ौसुल आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ये भी फ़रमाते हैं।

बचपन में जब कभी मैं साथियों के साथ खेलने का इरादा करता।

तो ग़ैब से किसी कहने वाले की आवाज़ सुनता। “ऐ बरकत वाले, तुम मेरे पास आ जाओ।”

तो मैं तुरंत अपनी वाल्दा की गोद में चला जाता।

हज़रत शेख मुहम्मद बिन ख़ाइ़द अलवानी रहमतुल्लाहि अलैह फ़रमाते हैं।

एक बार हज़रत शेख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी ने हमसे फ़रमाया। “बचपन में मुझे एक बार हज्ज के दिनों में।”

“जंगल की ओर जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ।” “मुझे एक गाय नज़र आई।”

“फ़िर मैं उस गाय के पीछे-पीछे चलने लगा।”

“मैं जंगल की तरफ़ काफ़ी दूर तक निकल गया।”

“अचानक उस गाय ने मेरी ओर मुड़कर देखा।” “और फ़िर मुझसे इंसानी ज़ुबान में बातें कहने लगी।”

“ऐ अब्दुल क़ादिर! अल्लाह ने तुम्हें इस काम के लिए पैदा नहीं किया है।” “आप वापस घर जाएँ।”

उस गाय को यूँ कहते सुनकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। मैं परेशान होकर घर लौट आया।

घर से ही मैदान-ए-अरफ़ात देखना

  • आपने फ़रमाया कि। मैं अपने घर की छत पर चढ़ गया। वहाँ मुझे दूर-दूर तक नूर ही नूर नज़र आया।
  • फ़िर मेरी नज़रें दूर तक चली गईं। हर चीज़ साफ़-साफ़ नज़र आने लगी।
  • यहाँ तक कि मुझे अपने सामने ही। मैदान-ए-अरफ़ात साफ़-साफ़ नज़र आया। सुब्हान अल्लाह!
  • ये कमाल है अल्लाह के वलियों की कामिल नज़रों का। जो अल्लाह का महबूब होता है।
  • अल्लाह उनकी नज़रों में अपनी क़ुदरत से। वो तासीर भी पैदा कर देता है।
  • हज़ारों लाखों मील दूर की चीज़ें भी। उन्हें यूँ नज़र आती हैं, मानो। वह उनकी नज़रों के ठीक सामने हों।
  • आज की साइंस और टेक्नोलॉजी पर नज़र डालें। हम घर बैठे ही दूर के मंज़र भी देख सकते हैं।
  • वे लोग ज़रा ग़ौर करें, जो साइंस पर भरोसा करते हैं। मगर वली अल्लाह की करामातों पर यकीन नहीं करते।
  • मेरा मानना है कि अल्लाह अपने वली अल्लाह के ज़रिए। करामातें इसलिए ज़ाहिर करता है।
  • ताकि इंसान इससे इबरत (सबक) हासिल करे। सीख हासिल करते हुए नई खोज भी कर सके।

🖊 तालिब-ए-इल्म: एड. शाहिद इक़बाल ख़ान, चिश्ती-अशरफी

हुज़ूर ग़ौसे आज़म रज़िअल्लाहु तआला अन्हु पार्ट-3 बचपन के वाक़्यात




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