फ्रांसीसी लेखक जूल्स वर्न का 1873 का उपन्यास `अस्सी दिनों में पूरे विश्व का चक्कर` काफी प्रसिद्ध हुआ था। लेकिन तब यह एक चुनौती थी। आज लगभग डेढ़ सदी बाद कोई भी हवाई जहाज़ पर सवार होकर पूरे विश्व का चक्कर अस्सी घंटों में लगा सकता है। और आज हम आधी दुनिया यानी भारत से कैलिफोर्निया का सफर मात्र 20 घंटों में पूरा कर सकते हैं। बेशक यह हमारी शरीर घड़ी को गड़बड़ा देता है। यहां जब दिन होता है उस समय वहां रात होती है। इसलिए हमारी दैनिक लय के समायोजन में एक-दो दिन लग जाते हैं।
इस तरह की दैनिक लय की जैविक क्रियाविधि (न केवल लोगों में बल्कि पौधों में भी) को पहचाना गया है और इस साल का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को इसी जैविक घड़ी के खुलासे के लिए दिया गया है।
अंतरिक्ष यात्रियों के जैव रसायन, कोशिकीय जीवविज्ञान और जीनोम जीवविज्ञान का क्या होता है? क्या वे अपने पृथ्वी पर रहने वाले साथियों से अलग हैं? जैसे ही समान जुड़वां पर चल रहे रोमांचक अध्ययन पूरे होंगे इसका जवाब पता लग जाएगा। स्कॉट केली अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के निवासी हैं और इनके जुड़वां भाई मार्क केली (एक रिटार्यड ऑफीसर) पृथ्वी पर रह रहे हैं। शोधकर्ताओं ने स्कॉट केली के अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर 340 दिन के लिए रवाना होने से पहले और मिशन के दौरान और वहां से लौटने के बाद इन दोनों जुड़वां भाइयों के शारीरिक सैम्पल ले लिए हैं। क्या कोई स्पेस जीन है जो अंतरिक्ष में चालू रहता है और पृथ्वी पर लौटते ही चुप हो जाता है? अध्ययन जारी है और हमें इस अध्ययन के रोमांचक परिणामों का इंतज़ार है।
`मुझे चांद पर ले चलो, मुझे सितारों के बीच खेलने दो, मुझे देखने दो कि मंगल और बृहस्पति पर वसंत कैसा होता है`, यह गाना फ्रैंक सिनात्रा ने 60 वर्षों पहले गाया था। वर्न की उक्त चुनौती पृथ्वी से आगे बढ़कर आकाश और सितारों तक चली गई है। और ऐसा लगता है कि जल्द ही यह संभव हो जाएगा कि कोई भी अंतरिक्ष यात्री बन सकेगा। ऐसी कंपनियां अस्तित्व में आ चुकी हैं जो लोगों को अंतरिक्ष यात्रा की पेशकश कर रही हैं। और जब ऐसी यात्राएं आम बात हो जाएगी, तब सजीवों में क्या-क्या व किस तरह के जैविक परिवर्तन होंगे, कैसे वे बदले हुए पर्यावरण के अनुकूल हो जाएंगे, और पृथ्वी पर लौटते ही मूल अवस्था में लौट आएंगे? ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आज सक्रिय रूप से अध्ययन किए जा रहे हैं।
इस सम्बंध में दो तरह के प्रोजेक्ट चल रहे हैं। एक तरह के प्रोजेक्ट्स में लोगों को अंतरिक्ष में अधिक समय (महीनों या वर्षों) तक रखा जाता है और उन पर अंतरिक्ष में और फिर धरती पर लौटने के बाद अध्ययन किए जाते हैं। इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) सन 1998 में पृथ्वी से 408 कि.मी. की ऊंचाई पर स्थापित किया गया था। इसमें रहने वालों को शून्य गुरुत्वाकर्षण का अनुभव होता है। यहां अध्ययन का प्रमुख विषय है कि उनके शरीर, अंगों, रक्त प्रवाह और अन्य जैविक लक्षणों में क्या परिवर्तन आते हैं।
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अंतरिक्ष सूक्ष्मजीव विज्ञान
अन्य किस्म के प्रोजेक्ट्स में कोशिकाओं (बैक्टीरिया जैसे एक-कोशिकीय जीवों) को अंतरिक्ष में भेजा जाता है और वहां उनके गुणों का अध्ययन किया जाता है और उनकी तुलना पृथ्वी पर रखे तुलनात्मक समूह से की जाती है। यह शाखा अब अंतरिक्ष सूक्ष्मजीव विज्ञान कहलाती है। कोशिकाओं के अध्ययन हमें बताते हैं कि आणविक स्तर पर क्या घटित हो रहा है। इसके आधार पर विस्तार देकर ऊतकों, अंगों और पूरे जीव की स्थिति को समझने में काफी मदद मिलेगी।
अंतरिक्ष सूक्ष्मजीव विज्ञान पर नवीनतम रिपोर्ट यू.एस. स्थित कोलेराडो विकाविद्यालय के डॉ. लुइस ज़ी और उनके समूह द्वारा प्रस्तुत की गई है। उन्होंने बैक्टीरिया ई. कोली का एक सेट सैम्पल के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भेजा और वहां एक अंतरिक्ष यात्री ने उस सैम्पल के आकार, आकृति, घातक दवा जेन्टामाइसिन के प्रति प्रतिक्रिया और अन्य गुणों का अध्ययन किया। इसके साथ ही पृथ्वी पर ई. कोली के एक तुलनात्मक सेट का अध्ययन किया गया और इन दोनों के गुणों की तुलना की गई। इस तरह की तुलना कोशिका के विभिन्न पहलुओं पर गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव पर प्रकाश डालेगी।
यह तुलना काफी जानकारीप्रद है। पहली, अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में कोशिका में बदलाव देखे गए – उनकी आकृति, आकार में कमी आई, कोशिका भित्ती मोटी हो गई, और एक फिल्म (बायोफिल्म) से ढंक गई थी। उनकी बाहरी झिल्लियों पर गोलाकार कलिकाएं पृथ्वी पर स्थित सेट की तुलना में ज़्यादा बनी थीं। ये कलिकाएं बाह्र झिल्ली पुटिका कहलाती हैं, और बैक्टीरिया को तनाव की स्थिति में जीने में सहारा देती हैं। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में रखे गए ई. कोली पृथ्वी की अपेक्षा ज़्यादा दवा प्रतिरोधी पाए गए। ऐसा लगता है कि गुरुत्वाकर्षण, जो तरल पदार्थों के नीचे की तरफ के बहाव में मदद करती है, उसकी अनुपस्थिति में तरल के बहाव का प्रमुख तरीका विसरण का होता है, जो कम कार्यक्षम है।
प्रयोग ज़रूरी इस अध्ययन से दो बिन्दु और उभर कर आए हैं। पहला, कि पृथ्वी से दूर अंतरिक्ष यात्रियों को संक्रमण का खतरा ज़्यादा हो सकता है (या यों कहें कि उन्हें दवा की अधिक खुराक लेनी होगी)। और दूसरा, अंतरिक्ष यात्रियों की आंतों में रहने वाले रोगाणु जो उनके चयापचय में मदद करते हैं, हो सकता है कि वे कम कार्यक्षम हो जाएं। इन संभावनाओं का पता लगाने के लिए और प्रयोगों की आवश्यकता है।
अब अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर पृथ्वी का चक्कर लगाने वाले मनुष्यों की बात करते हैं। प्रयोगों से पता चला है कि उनके रक्त का चिपचिपापन बढ़ता है, रक्त का संचार घट जाता है और ह्मदय-रक्त संचार तंत्र सुस्त या थोड़ा धीमा हो जाता है। आंख के गोले थोड़े अंडाकार हो जाते हैं, हड्डियां पतली हो जाती हैं और यकृत जैसे अंग अपनी जगह से थोड़ा खिसक जाते हैं। ऐसा कहा गया है कि यह सब गुरुत्वाकर्षण की अनुपस्थिति के कारण होता है। जब हम मानवयुक्त जहाज़ अन्य ग्रहों पर भेजेंगे तब ये परिणाम महत्वपूर्ण साबित होंगे। जब वे इस तरह की अंतरिक्ष यात्रा से पृथ्वी पर लौटते हैं, तो क्या वे वापिस अपनी पुरानी स्थिति हासिल कर लेते हैं? इसका जवाब है हां। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में लंबा समय बिताने के बाद जो अंतरिक्ष यात्री यात्रा घर लौटे हैं वे वक्त के साथ वे ठीक हो गए हैं। यह सुखद बात है। याद कीजिए, लंबा समय अंतरिक्ष में बिताने के बाद अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स पृथ्वी पर लौटकर एक मैराथन में शामिल हुर्इं थीं।
-डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन