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खान कहें या 24 घंटे आग उगलती धरती
दोस्तों! आपको बता दूँ कि झरिया जो पिछले सौ वर्षों से अपने ही हालातों पर धूँ-धूँ करके हर पल जल रहा है। जमीनी हकीकत यह है कि झारखंड का झरिया शहर जो सुलगते कोयले की दुनिया है। झरिया गाँव का तापमान इतना ज्यादा है कि जूतों-चप्पलों के तलवें कुछ ही देर में पिघला दें। इसे जलते हुये कोयले का शहर कहें, खान कहें या 24 घंटे आग उगलती धरती कहें तो अतिश्योक्ति नही होगी। हालात यह हैं कि जलते कोयलों की धरती से निकलती हानिकारक गैसों के कारण पूरे गाँव के घरों में बड़ी – बड़ी दरारें आ चुकी हैं और इन्हीं दरारों के कारण ऑक्सिजन धरती के अंदर पहुंचती है जिससे कोयला और भी तेजी से जल उठता है। बस यही झरिया की कभी न बुझने वाली आग का एक बड़ा कारण है। यहाँ हर वक्त जहरीली हवायें चलती रहती हैं। यहाँ का वातावरण इस हद तक प्रदूषित है कि हर कोई श्वास सम्बन्धी भंयकर बीमारी से ग्रसित है और दोस्तों दर्द का आलम यह है कि वहाँ आँसू भी आने से पहले भाप बनकर उड़ जाया करते हैं। जहाँ जीवन भी जीवन की भीख मांग रहा है और रही बची कसर सरकारी भ्रष्ट अधिकारी और कोयला माफिया पूरी कर देते हैं।
अब आप यह सोच रहे होगें कि आखिर! झरिया में ऐसा क्यों हो रहा है? आइये आपको झरिया का सच बतातें हैं जिसे सुनकर आप हैरान रह जायेगें कि यह झारखण्ड का झरिया शहर देश का सर्वाधिक कोयला उत्पादन करने वाला एक मात्र स्थान है और विश्व का सबसे शानदार कोयला उत्पादन करने वाला स्थान भी है। झरिया कोयला राजधानी माने जाने वाले शहर धनवाद के पास स्थित है।
झरिया में 1916 से भूमिगत भट्टी जल रही है जो निरंतर आग उगल रही है। जिसके कुप्रभाव से वहाँ जीव – जंतु और पेड़-पौधे बहुत कम संख्या में ही बचे है और जो बचे हैं वह भयंकर प्रदूषण की मार झेल रहा है। झरिया का पानी और भोजन पूरी तरह प्रदूषित है और वहाँ का जनजीवन दर्द से बोझल।
झारखण्ड में बहने वाली दामोदर नदी क्षेत्र जो 110 वर्गमील (280 वर्ग किलोमीटर) में फैला हुआ है जिसके एक छोर पर बसा झरिया झारखंड राज्य के 15 बड़े राज्यों मेंं से एक सबसे समृद्ध राज्य है। जहाँ स्पात निमार्ण हेतु उच्चस्तरीय आवश्यक कोक उत्पादन हेतु जो कोयल प्रयुक्त होता है उसे ‘कोकिंग कोल’ कहते हैं जो कि झरिया की जमीन में बहुतायत से विद्यमान है। देखने वाली बात यह है कि इसी कोयल को हमारी सरकार 4 बिलियन डॉलर खर्च करके विदेश से मंगवाती है। जबकि झरिया इस मांग के लिये अकेला ही काफी है पर सोच यह है कि झरिया की आग बुझे, भय मिटे, तब विकास आगे बढ़े। यही मायनों में देखें और कहें तो अगर व्यवस्था सभ्य और ईमानदार हो तो हमारा देश किसी से किसी भी मामले में कम नहीं है।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार झरिया की कुल आबादी 81,979 थी। यहाँ का शिक्षा प्रतिशत उदासीनता का पर्याय बनता जा रहा है और हो भी क्यों न क्योंकि वहां आम आदमी की जीविका यही कोयले की खुदाई और ढुहाई है। दिन-रात वहाँ की आधे से अधिक आबादी जनबच्चों से कोयले की कालिख में किसी बेल की तरह जुते हुये हैं। दुर्गति का आलम यह है कि पूरा दिन बैल की तरह जुतने के बावजूद उनको चार सौ रूपया दिहाड़ी मिल जाये तो काफी है। झरिया कोल माइन के मजदूर धरती पर जिंदा ही नर्क भोगने पर विवश हैं और उनकी खबर लेने वाला कोई नहीं है। यहाँ का जीवन पिछले पूूरे सौ वर्षों से अंगारों पर बैठा अपनी अंंतिम श्वासें गिन रहा है। पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत आग की वजह से यहां की जमीन बेहद खोखली हो गई है। जिससे यहां अचानक कभी भी जमीन धंस जाती है और लोग बिन मौत जमीन में समा जाते हैं। जो कि बेहद दर्दनाक स्थिति है।
सन् 1916 में पहली बार झरिया के पास ही भौरा कोलियरी नामक स्थान में आग लगने का पता चला था।
सन् 1973 में जब कोलफील्ड को राष्ट्रीयकृत किया गया, तब यहां 70 स्थानों पर जमीन के नीचे कोयले में आग धधक रही थी जो कुछ भी जलाने को आमादा थी। उस समय इस इलाके में आबादी न के बराबर थी।
सरकार द्वारा पहला सर्वे 1986 में किया गया तो पता चला कि आग 17 वर्ग किमी तक फैल चुकी है। इस खाली आग से प्रतिवर्ष झरिया की एक बस्ती का अस्तित्व खाक हो रहा है। छह सालों में इस आग ने झरिया से जुड़े 6.82 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को तबाह कर दिया है। आलम यह है कि करीब 2.18 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अाज भी आग का दरिया बना हुआ है।
सन् 1930 में पहली बार अंग्रेजों ने यहां पहली देशी कोयला खदान सुरंग प्रक्रिया से शुरू की थी। जिसे आजादी के बाद भी निजी खनन माफियाओं ने गैरकानूनी रूप से अंडरग्राउंड कोल माइनिंग को द्रुत गति से जारी रखा और इस लालच की अति का परिणाम यह हुआ कि सुरंग के रास्ते से आग को ऑक्सीजन पहुंची और वह बुरी तरह धधक उठा। झरिया की इस बेलगाम होती आग का मुद्दा 1997 में देश के सामने आया। आज 80 हजार से ज्यादा लोग जमीन के भीतर इस बेकाबू हुई आग से बुरी तरह सेे प्रभावित हैं। वे अपना घर छोड़ने को मजबूर तो हैं पर पापी पेट के कारण रूके हुयें हैं। झरिया के अधिकांश लोग गले, श्वांस और स्किन आदि की भयंकर बीमारियों से हर पल जूझ रहे हैं और जमीन में लगी यह आग साक्षात् यमदूत बनकर उनको 24 घंटें घेरे खड़ी है। कब कौन कहाँ धरती में समा जाये, कब कौन कहाँ समा जाये और खाँस-खाँस के दम तोड़ दे। ये कोई नही जानता। इसे धरती का नर्क कहें तो अतिश्योक्ति नही होगी। आप सोच रहे होगें कि वहां धरना प्रदर्शन क्यों नही होता? इतना अन्याय सहकर भी सब चुप क्यों हैं? तो इसका एक ही जवाब मुझे सही लगता है कि वहां के लोगों पर इतना समय ही नही कि वह कुछ बोल पायें। उनका एक-एक मिनट कीमती होता है कि बस दो रोटी का खर्च निकल आये। यह झरिया की खामोश हकीकत।
वैज्ञानिकों का कहना हैै कि झरिया विश्व का सबसे शानदार कोयला उत्पादन करनेे वाला शहर है पर इस धरती में हर पल धधकती बेकाबू आग से देश का अब तक का सबसे कीमती 10 अरब से अधिक का कोयला जलकर खाक हो चुका है और बचा है तो बस 1 अरब 86 करोड़ टन जोकि आज खनन माफियाओं और भ्रष्ट अफसरों की आँख की किरकिरी बना हुआ है कि कब मौका मिले और हमारी जेबें भरें।
सरकार पर जब भारी दबाव पड़ा तब गम्भीरता दिखाते हुये सन् 2008 में जर्मन कंसल्टेंसी फर्म डीएमटी ने आग के स्त्रोत का पता लगाकर अनेकों तकनीकों से आग बुझाने के प्रयास किये गये, जिसमें एक था अंदर के रिक्त स्थान को बोरिंग से भर दिया जाये, जिससे कोयला ऑक्सीजन से दूर रहे और आग पर काबू पाया जा सके।
इस पूरे प्रयास में खर्च का मीटर देखते हुये सरकार ने अपने हाथ पीछे खींच लिये और सभी उम्मीदें काली आग में भाप हो गये। जबकि सरकार को अच्छे से पता है कि झरिया जलता हुआ एक बेशकीमती शहर है। इस जलते हुये शहर की हकीकत यह है कि यहाँ के मजदूर जन बच्चों सहित धधकते हुये कोयलों को हटाते हुये ट्रकों में लोड करते हैं और इस जोखिम भरे काम की उन्हें 160-170 रूपये दिहाड़ी यानि दिनभर की मेहनत भी ठेकेदार भरोसे है जो कि पूरी तरह अन्याय है। सोचने की बात यह है कि वहां के मजदूर के पांव और पेट दिनभर आग की चोट सहते रहते हैं। उनको दो जून की रोटी भी तन जलाकर भाग्य भरोसे नसीब है।
सच कहूँ तो झरिया के मजदूरों का नाम लिम्का बुक रिकॉर्ड में दर्ज होना चाहिये और देश की सरकार द्वारा उन्हें भारतरत्न मिलना चाहिये क्योंकि वहां की धरती की धधकती आग में और खाली पेट की आग में हर पल झुलसते हुये जीना किसको कहते हैं यह जाकर देखो झरिया! या पूछो झरिया के लोगों से जो हर वक्त मौत की गोद में जीने की अनूठी कला सिखा रहे है। आज देश में जब देखो तब चुनाव बस। जनता किस हाल में है पूछने वाला कोई नहीं। आज यहां पर 15 सालों में 10 मुख्यमंत्री मंत्री बदल गये पर नहीं बदली तो झरिया की सूरत।
अफसोस! न यहां के गरीब के पेट की आग बुझती है और न ही यहां की धरती की। आज यह जीताजागता नर्क का पर्याय बना खड़ा है पर फिर भी जीवन यहां काली जहरीली श्वांस ले रहा है। इसके अतिरिक्त पूरे दिन गम्भीर चोटेंं लगना भी उन्हें आम बात हैं। इस बेकाबू क्रूर आग ने वहां के लोगों के शरीर को नित झुलसा-झुलसा कर अपना आदि, अनुकूल वहां गुलाम बना लिया है। सरकार ने यह दुर्ददशा देख मदद तो दी है पर वह ऊंठ के मुंह में जीरे के समान है। यहां के कोयला सचिव का बयान प्रकाशित हुआ कि कोयला सचिव ने झरिया का औचक निरीक्षण किया और एक जिम्मेद्दार के प्रति लापरवाही पर नाराजगी जतायी है। अप्रैल 2016 में कोयला सचिव विकास स्वरूप आए थे और बोले, “आग से विदेशी खदानें भी अछूती नहीं हैं. आग को कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम चल रहा है. झरिया की भूमिगत आग बेकाबू हो गयी है.” लो कर लो बात हो गयी लीपापोती लगता है रस्म निभा दी गयी। यह सब लालफीताशाही का शिगूफा है।