ज़िक्र ए शोहदा ए कर्बला🖊️- पार्ट -9
- दीं पनाह अस्त हुसैन
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कर्बला को कर्बला के शहंशाह पर नाज़ है
अपने नवासे पर “मोहम्मद मुस्तफा” को नाज़ है
यूं तो लाखों सजदे किए
मखलूक ने मगर
हुसैन ने वो सजदा किया जिस पर “खुदा”को नाज़ है
इमाम आली मक़ाम ने उस रात इबादत से फ़ारिग हो जाने के बाद अपने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को आवाज़ देकर इकठ्ठा किया और फिर खेमे में अँधेरा करने के बाद सब से जो कहा उसे वैसा ही लिखा जा रहा है जैसा किताबो में है :
“तमाम तारीफ़ें उस खुदा के लिए हैं जो हम सब का ख़ालिक़ और मालिक है ।
मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ व वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं
और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं। खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम (अच्छा फल) देगा। आगाह हो जाओ कि दुश्मन जंग ज़रूर करेगा
और मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ,
मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा। शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है।
अगर वह मुझे पा लेंगे तो फिर वे तुम्हें तलाश नहीं करेंगे”।
इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए।
तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है।”
मगर किसी ने भी उस मुश्किल घड़ी मे इमामे आली मक़ाम हुसैन का साथ नहीं छोड़ा।
जिस पर प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा था कि
अगर कोई सेनापति इस तरह के माहौल में आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर की राह लेते हुए नज़र आयेंगे मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ ।
‘ज़ुहैन इब्ने क़ेन’ जैसे बूढ़े सहाबी ने कहा
“ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी मैं आपसे अलग नहीं हो सकता।
सभी रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे, हरगिज़ नहीं । खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे जब हम आपको छोड़ दे ”।
फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से भी कहा कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने भी कह दिया कि वह यज़ीद से जंग कर अपनी कुर्बानी तो दे सकते है मगर हुसैन को छोड़कर जाना उन्हें गवारा नहीं ।
हुसैन के खिदमतगारो में ही 19 साल का नवयुवक ‘वहाब’ भी था जिसकी सिर्फ 17 दिन पहले शादी हुई थी उसकी वालेदा फातेम्म्ज़हरा की कनीज़ थी, उसे भी हुसैन ने समझाया, की बेटे तुम चले जाओ घर वालो की ज़िम्मेदारी भी तुम पर है
पर उसने जवाब दिया
“ अए आका हुसैन मेरी माँ ने मुझसे कहा था, अगर ज़रूरत पड़ी और तुम्हे जंग करना पड़े, तो बेटे हुसैन के घरवालो से पहले तुम्हे जंग लड़कर शहीद होना है, अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो तुम्हे अपना दूध नहीं बख्शुंगी I
तब हुसैन ने उसे उसकी बीबी का वास्ता देकर वापस चले जाने कहा तब उसने कहा
“अए आका हुसैन मुझे मेरी बीबी ने कहा था की ये मेरी सबसे बड़ी खुशकिस्मती होगी जब आप इमाम के लिए जंग करते हुवे शहीद हो जाएंगे, सभी के सुहाग तो मिट जाएँगे मगर शहीद होकर मेरा सुहाग हमेशा सलामत रहेगा I
इसी तरह से हुसैन ने एक एक से कहा, उन्हें समझाया मगर कोई भी इमामे आली मक़ाम हुसैन रदीअल्लाहो तआला अन्हों का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हुवे I
आजकल हम देखते है की बहुत से लोग यह कहते है की मोहर्रम में गम करना रोना धोना ये सब क्या है इस्लाम में कहां है। उनसे कहना चाहूंगा की जिनसे दीन ज़िंदा है उनसे उनके खानदान से तुम्हे कोई मतलब नही।
मोहर्रम में लज़ीज़ खिचड़ा खाने वालों और मीठा शरबत ख़ूब छक के पीकर हंसी ठिठोली करके तुमने हुसैन को समझा ही कहां है।
मोहर्रम में हुसैन अलैहिस्सलाम को याद करने के लिए क्या इतना ही काफ़ी है।
कर्बला के मैदान में जो 72 शहीद हुवे थे इनमें से10 लोगों के नाम भी हमे नहीं मालूम ।
कर्बला में और कर्बला के बाद जो कुछ भी हुआ उलमा हमें हर साल बतलाते हैं मगर हम सुनना ही नहीं चाहते ।
हर साल हम कहते तो ज़रूर है की इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद ।
मगर हमारे दिल जिंदा क्यो नही हो पाते हर कर्बला के बाद ?
जिसका जवाब है हमारे सीनों में इमाम हुसैन से मोहब्बत ही नही है। मोहब्बत का दम भरकर सिर्फ़ दिखावा ही दिखावा है।
अगर हमें सही मायनों में दीन ए इस्लाम को समझना है तो हमें इमामे हुसैन के किरदार को देखना होगा।
घर को संवारना है तो पहले सभी घरवालों के दिलो में हुसैन से मोहब्बत ज़रूरी है।
अहले बैत से मोहब्बत करना ज़रूरी है।
सिर्फ़ फतवो मे उलझने वालो मोहर्रम मे बहस बाजी करने वालो कभी बड़ी खानकाहों में दरगाहो में भी नज़र डालो।
शहंशाहे हिंदल वली हुज़ूर ख़्वाजा गरीब नवाज़, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत मख़दूम अशरफ़ जहांगीर सिमनानी, हजरत वारिस पाक देवा शरीफ़, हज़रत सैय्यद बंदानवाज़, हज़रत ताजुद्दीन औलिया रहमतुल्लह अलैह जैसे आस्तानो में जिस तरह से इमामे हुसैन और कर्बला के शहीदों से मोहब्बत का जज़्बा साफ़ देखा जा सकता है। शोहदा ए कर्बला का ज़िक्र कर उन्हे याद किया जाता है, क्या हम भी सही मानो में दिल से उनको याद करते है।
शायद नही। जिसका नतीजा है की हम इमाम हुसैन और उनके घराने वालो की मोहब्बत से दूर होते जा रहे है। जबकि हम इस बात को बख़ूबी जानते है की हमारे आक़ा नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी फ़रमाया है की
मेरे कराबतदारो से अहले बैत से मोहब्बत करो । उनका दामन मजबूती से थामे रहो। इस दामन के सदके वो तुफैल ही हम अल्लाह तक पहुंच सकते है आपने यहां तक फरमाया की
‘हुसैन मुझसे है और मै हुसैन से हूं’ ।
हुसैन की शहादत के बारे में जब जिब्रीले अमीन ने बतलाया तो सुनकर आका की आंखो से आंसू नहीं रुक रहे थे ।
ख़ुद को ज़रा देखे और गौर करे की इमाम ए आली मकाम हुसैन की शहादत को याद करके यदि हमारी आंखो से आंसू न निकले तो फ़िर क्या सही मानों में हम हुसैनी है ।
इमाम हुसैन को याद करके हमारी आंखो से टपके आंसू का एक कतरा भी रब के नज़दीक बेशकीमती है और रब तआला फरमाता है
ए बंदे मेरे मेहबूब के मेहबूब नवासे हुसैन के लिए टपके इस अनमोल मोती के सबब मैने तुझे बख्श दिया । सुभान अल्लाह ।
- नमाज़ की अज़मत को समझना है तो हुसैन से समझो, रोज़े की अहमियत को समझना है तो हुसैन से समझो।
ला इलाहा इलल्लाह को समझना है तो हुसैन से समझो।
इन्नलाह मा अस्साबरिन यानि बेशक अल्लाह सब्र वालो के साथ है और सब्र को समझना है तो हुसैन से समझो । और दीन को अगर समझना हो तो दीन को पनाह देने वाले हुसैन से समझो।
कुरान अगर थ्योरी है तो इमाम हुसैन का क़िरदार उनकी जीवनी प्रेक्टिकल।
कुरान का जुज़ वाक्या ए शोहदा ए कर्बला है।
जन्नती जवानों के सरदार हुसैन और कर्बला के वाक्ये पर एक नजर डालें । और जो दीन का ख्वाहिश मंद है वो हुसैन का दामन थाम ले।
कर्बला में नमाज़ी दोनो तरफ़ थे।नमाज़ दोनों ही तरफ हो रही थी, मगर नमाज़ किसकी कुबूल होगी इसे रब जानता है ।
बेशक जो इमाम हुसैन के साथ है हुसैन वालो वालों के साथ है अल्लाह नमाज भी उसकी ही कुबूल करेगा ।
आइए इसे कोई और नहीं बल्की
शहेंशाहे हिंदलवली हुज़ूर ख़्वाजा गरीब नवाज़ और दिगर वलीअल्लाहो के नज़रिए से समझते है ।
पहले तो जान ले के ये कौन है ये हसनी और और हुसैनी सादात सैय्यद है ।
हुज़ूर ख़्वाजा गरीब नवाज़ इमाम हुसैन इब्ने अली को सिर्फ़ चार जुमलो मे समझा दिया अगर फिर भी जो नही समझे तो जान ले की वो दीन से भटके हुए है जिन्होंने दीन समझा ही नहीं है जब ये ख़्वाजा गरीब नवाज़ को को नही समझे तो हुसैन को क्या समझेंगे
हुज़ूर गरीब नवाज़ फरमाते है ।
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन,
दी अस्त हुसैन, दी-पनाह अस्त हुसैन,
सरदाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद,
हक़्क़ा के बिना, ला इलाह अस्त हुसैन…
जिसका मायने भी जान ले
बेशक हुसैन शाह है, हुसैन बादशाह है,
हुसैन दीन है हुसैन दीन को पनाह देने वाले है,
हुसैन ने सर तो दे दिया मगर अपना हाथ नहीं दिया,
हक़ तो ये है की कलमा ‘ला इलाहा इलल्लाह’ की बुनियाद हुसैन है “
शाह और बादशाह का मायने तो एक ही है तो फिर शाह और बादशाह दो अलग-अलग लफ्ज़ कहने की जरूरत गरीब नवाज़ को क्यों हुई ?
आइए इसका जवाब समाद फरमाए
शाह का मायने होता है वो जिसकी बादशाहत हर जगह हो
और बादशाह का मायने होता है जिसकी बादशाहत किसी मकसूस जगह के लिए जो दुनिया की सारी ज़मीन पर भी हो सकती।
अब जरा समझे कि हुसैन को हुजूर गरीब नवाज सरकार ने शाह क्यों कहा है ?
क्योंकि इमाम हुसैन की बादशाहत जमीन पर भी है और आसमानों में भी है ।
इस वजह से उन्हें शाह कहा है।
क्योंकि शाह वो होता है जिसकी हुकूमत हर जगह हो
और बेशक इमाम हुसैन बादशाह कल भी थे आज भी बादशाह बादशाह है और हमेशा बादशाह ही रहेंगे। क्योंकि लोगो के दिलो मे हुकूमत हमेशा हुसैन की रहेगी।
जब यजीद था । तब भी वो सिर्फ़ फासीक था, कोई उसे बादशाह समझने की भूल न करें बल्कि इमाम आली मकाम हुसैन उस वक्त भी बादशाह थे ।
यजीद के साथ-साथ उसका नाम भी मिट गया मगर इमाम आली मकाम हुसैन उस वक्त भी लोगों के दिलों पर राज करते थे और आज भी दिलों पर राज कर रहे हैं।
हर तरफ इमाम हुसैन ही का बोलबाला है । उनके नाम की गूंज सुनाई देती है।
इमाम हुसैन को दीन क्यों कहा है?
हुज़ूर गाज़ी ए मिल्लत हाशमी मियां साहब ने अपनी तकरीर मे फरमाया है
नबी ए करीम नमाज़ पढ़ा रहे हैआका सजदे में है आका के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले भी सजदे में है तभी आका की पुश्त पर इमाम आली मकाम हुसैन जो छोटे बच्चे थे आकर सवार हो जाते हैं ।
आका समझ गए मेरा हुसैन है और आका ने सजदे से सर नहीं उठाया,
आपने सुभान रब्बीअल आला 3 बार पढ़ा ,5 बार पढ़ा 7 बार पढ़ते रहें क्योंकि हुसैन आका की पुश्त पर है अगर सर उठाया तो हुसैन को चोट ना लगे जाए यहां तक की आपने 72 मर्तबा सुभान रब्बियल आला पढ़ा और फिर इमाम हुसैन आका की पुश्त से उतर गए तो आका ने सजदे से सर उठाया कुछ के दिल में खयाल आया होगा कोई यह सोच सकता होगा कि आका इतना लम्बा सजदा आखिर क्यों ?
आका समझ गए मुस्कुराए क्योंकि वह जानते थे की इस वक्त उनकी पुश्त पर उन का नवासा नहीं बल्कि दीन और दीन को पनाह देने वाला हुसैन है । सुभान अल्लाह
जो गरीब नवाज़ वाला होगा, उनसे मोहब्बत करने वाला,
उनपे अकीदत रखने वाला, उनका सच्चा शैदाई होगा,
वो हुसैन वाला, हुसैन से इश्क़ करने वाला भी यक़ीनन होगा ।
और जो हुसैन वाला होगा वही अली वाला होगा और बेशक वहीं नबी वाला होगा और सही मानों में वही आका का गुलाम होगा ।
बतलाने का मकसद सिर्फ यही है कि सही मायनों में दीन ए इस्लाम पर चलने वालों की पहचान मुश्किल नहीं है बल्कि आसान है । बस समझने की ज़रूरत है ।
आइए अब जरा कर्बला के मैदान में जो कुछ भी हुआ उस मंज़र को सच्चा हुसैनी बन कर देखें और
यज़ीदी खेमें में कौन लोग थे ज़रा इस पर भी गौर करे । क्या वो यहूदी, नसारा, ईसाई थे ? या फ़िर वे काफिर थे ? आखिर कौन थे वे लोग ? ये वो थे जो जानते थे सिर्फ हुसैन ही नहीं बल्कि हुसैनी खेमों में छोटे छोटे बच्चे, बूढ़े और औरतें भी प्यासी है जबकि दरिया ए फुरात क़रीब है जिसका पानी सभी पी रहे है मगर जिसे नवासे रसूल, अली वो फातिमा के दुलारे इमामे हुसैन नहीं पी सकते है । कौन है ये बदबख़्त ? जिनके सीनों में आले रसूल से इतनी नफ़रत है ।तारीख़ बतलाती है ये बदबख्त वो लोग थे जो खुद को मुसलमान भी कहते थे ।
अल्लाह और उसके रसूल का कलमा पढ़कर इनमें से न जाने कितने ही खुद को आलिमे दीं भी समझ ते थे । मगर ये बदबख्त सही मायनों में सिर्फ इमाम हुसैन के दुश्मन नहीं थे बल्कि दीन ए इस्लाम के भी दुश्मन थे । ये जहन्नमी यजीद के नापाक हाथो पर बैअत होने वाले लोग इन्सान नहीं बल्कि वो शैतान थे, जिनसे शैतान भी हया करता होगा।
मगर इनके बीच मे ही एक हज़रते हुर्र भी थे जो यज़ीदी खेमे मे बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे । उनके दिल को करार नहीं था यहां तक की उन्होंने यज़ीदी सिपाहियों को भी हर तरह से समझाया की तुम जो कर रहे है वो सही नहीं है “ आखिर हुसैन का उनके घरवालो का गुनाह क्या है ? और फिर वो तो जंग करने के इरादे से भी नहीं आये है ज़रा सोचो एक तरफ 22,000 हथियारों से लैंस हमारा लश्कर है तो दूसरी तरफ सिर्फ चंद लोग, जिनके पास लड़ाई का कोई साजो सामान भी नहीं है I
और फिर ज़रा ये तो सोचो ये अली के लाल इमाम हुसैन और उनका घराना है । वो हुसैन जो नबी ए करीम के नवासे है उन्हें भूखा प्यासा रख कर,उन पर जुल्मों सितम करने ज़ालिम यज़ीद कह रहा है । क्या हमें यज़ीद का यह हुक्म मानना चाहिए या फिर हुसैन का साथ देना चाहिए ? जरा एक बार अपने दिलो से पूछो तो सही I हज़रत हुर्र की बात सुनकर कुछ लोग सहमत ज़रूर हुवे, मगर बेशक वह बुजदिल थे। इनमे से बहोतो को तो बड़े इनाम का लालच भी दिया गया था, लिहाजा किसी ने भी हज़रते हुर्र की बात नहीं मानी I
सुबह इमाम ए आली मकाम हुसैन रदीयल्लाहो अन्हों ने भी यज़ीदी सेना के सामने आकर एक हैरतअंगेज दिल दहला देने वाला खुतबा दिया, और यज़ीदी सेना के इन हैवानो से पूछा की ” ए लोगों जरा ये तो बतलाओ की आखिर हमारा कुसूर क्या है ? क्यों हमें इस तरह से बंदी बनाया गया है ? क्यों हमारे लिए पानी बंद कर दिया गया है ? जबकि तुम यह अच्छी तरह से जानते हो कि हुसैन तुमसे कोई जंग करना भी नहीं चाहता है। आपकी आवाज़ सुनकर लोग दहल गए उनके जिस्मो में कपकपी तारी हो गई जिसे देखकर इब्ने ज़ियाद ने फ़ौरन पैतरा बदला और कहा ” ए हुसैन हमारी आपसे कोई दुश्मनी नहीं है हमारा आपको नुकसान पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है ।आप यज़ीद के हाथो पर बैत कर ले ।
चलिए ज़ुबान से ना सही कम से कम सिर्फ़ सिर्फ कागज़ पर लिख कर दे दो तो अभी सारे पहरे हटा लिए जाएँगे I यजीद ने पैग़ाम भेजा है की उसकी बैत कर लेने से आपको इज्जत और बेशुमार दौलत से नवाज़ा जाएगा । जिसे सुनकर इमाम हुसैन ने जवाब दिया की “उस बदबख्त से कह देना की उसके नापाक हाथो पर हुसैन अपना हाथ ना तो जीते जी कभी दे सकता है और न ही मौत के बाद कभी देगा I
और इस तरह जब हुसैन चले गए और हज़रत हुर्र ने भी ये समझ लिया की जंग होनी तय है तो हज़रत हुर्र ने अपने बेटे को साथ लिया और अपने घोड़े को एड लगाईं और यज़ीदी सेना से कहा ये हुर्र हैवानो का साथ कभी नहीं देगा इसे शहीद होना पसंद है मगर हुसैन के खिलाफ जंग लड़ना कभी गवारा नहीं होगा । अपने साथियों को आखरी बार हुर्र ने कहा अब भी वक्त है जो जन्नत चाहता है वो मेरे साथआ सकता है ।
मगर वे बुज़दिल हुर्र के साथ नहीं आए और इस तरह हज़रत हुर्र और कुछ रिवायती के मुताबिक उनका बेटा हुसैन के खेमे में आ गए और उन्होंने हुसैन के कदमो में अपनी तलवारे रख दी और कहा “ए आक़ा हुसैन हमे भी अपने साथ शामिल कर लीजिये । जब तक ज़िंदा है आप पर कोई आंच नहीं आने देंगे यह हुर्र का वादा है। हुसैन इब्ने अली ने हुर्र को गले से लगा लिया ।
क्रमशः
🖊️ तालिबे इल्म: एड. शाहिद इकबाल खान, चिश्ती-अशरफी
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