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ज़िक्र ए शोहदा ए कर्बला✒️ – पार्ट-4

दीं पनाह अस्त हुसैन
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अली के घर की तरफ है नज़र ज़माने की, खबर जो पाई है मौला हसन के आने की
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हज़रत सैय्यदना इमाम आली मक़ाम हसन अलैहिस्सलाम
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इमाम हसन रज़िअल्लाह तआला अन्हु की विलादत 15 रमज़ानुल मुबारक सन् 30 हिजरी में, मदीना मुनव्वरा मे हुई, जब ये मुबारक ख़बर नाना रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तक पहुंची तो आप ख़ुशी और मसर्रत के साथ बेटी फातिमा के घर तशरीफ़ लाएँ

और फ़रमाया मेरे बेटे को मुझे दिखाओ, हज़रत असमा बिंत उमैस रज़िअल्लाह तआला अन्हा उस वक़्त वहाँ मौजूद थी उन्होंने शहज़ादे को एक ज़र्द रंग के कपड़े मे लपेटकर आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के आगोशे मोहब्बत मे दे दिया हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ज़र्द रंग के कपड़े को देखकर फ़रमाया मेरे बेटे को ज़र्द रंग के कपड़े मे ना लपेटा करो

चुनांचे उसी वक़्त उस ज़र्द रंग के कपड़े को हटा दिया गया और सफेद रंग के कपड़े मे लपेट दिया गया, हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने प्यारे शहज़ादे के दाएँ कान मे अज़ान और बाएँ कान मे अक़ामत इरशाद फ़रमाया फिर हज़रत अली

रज़िअल्लाह तआला अन्हु से फ़रमाया, इसका क्या नाम तजवीज़ फ़रमाया उन्होंने अर्ज किया कि इसका इख़्तियार तो आपको है, अगर चाहें तो मौलूद का नाम हरब रख लें ।

ज़िब्रील अमीन अलैहिस्सलाम सब्ज़ कपड़े पर आपका मुनक्कश मुबारक नाम लेकर हाज़िरे ख़िदमत हुऐ, फिर नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत अली रज़िअल्लाह तआला अन्हु से फ़रमाया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के भाई हज़रत हारून अलैहिस्सलाम के बड़े बेटे का नाम ‘शब्बर’ था, इसका अरबी तर्जुमा ‘हसन’ बनता है, मेरे बेटे का नाम यही होगा!

शेर ए खुदा हज़रत इमाम अली रज़ियल्लाहु तआला अन्हु और सैय्यदा फातेमाज्ज़हरा सलामुल्लाह अलैह की दोनों औलादे यानि “हज़रत इमाम हसन ओर हज़रत इमाम हुसैन’ वो है जिन पर सभी को नाज़ है, आप दोनों भी शेरे ख़ुदा की तरह ही बहादुर थे I

हज़रत इमाम ए अली रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के बाद आपके बड़े साहबजादे हजरत इमाम हसन अलैहिस्सलाम खलीफा बने । अगर आप किसी मुसलमान से ‘खुल्फा ए राशदीन’ की तादाद के बारे में सवाल करें तो वे सिर्फ चार नाम ही बताते हैं जबकि सही मानो में ‘इमाम ए हसन रदियल्लाहु तआला अन्हु’ भी ‘खुलफा ए राशदीन’ में आते हैं । और वे पांचवें खलीफा है ।

जब इमाम ए हसन रज़ियल्लाहु तआला अन्हु खलीफा बने उस वक्त ‘अमीर मुआविया’ जो बनू उमैया के शासक और सहाबी ए रसूल भी थे । वे शाम प्रान्त के गवर्नर थे । उस दौर में इस्लाम में दाखिल हो चुके कुछ कबीलों में आपस में मतभेद बढ़ते चले गए I

इन कबीलों मे ऐसे लोग भी थे जिन्होंने दिल से इस्लाम कुबूल नहीं किया तो कुछ ऐसे भी लोग थे, जो इस्लाम के साथ साथ अपने पुराने मज़हब को भूल नहीं सके थे, बहरहाल उनके हालात चाहे जो भी हो मगर ये सही है की इन कबीलों में से दो शक्तिशाली कबीले एक दूसरे के खून के प्यासे बन चुके थे और वे अक्सर लड़ाई झगडे किया करते थे, और इमाम हसन रजि अल्लाहु तआला अन्हु से बेहतर दीन ए इस्लाम को समझने वाला कोई और भला कैसे हो सकता

लिहाज़ा उन्होंने सुलह की हर मुमकिन कोशिश की, मगर युद्ध का उन्माद अपनी चरम सीमा में था जिसका नतीजा यह हुआ की आपस की लड़ाइयो में नाना जान का साथ देने वाले जानिसार सहाबा भी बेवजह मारे जा रहे थे, जिसे देखकर हज़रत ‘इमाम ए हसन’ को बहोत तकलीफ होती ।

तब उस वक्त की मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुवे हजरते इमाम हसन ने लोगों से अमन शांति कायम रखने की अपील करते हुए यह फैसला किया की उन्हें ऐसी सत्ता नहीं चाहिए जिसमे जाँबाज सहाबा भी शहीद होते रहे इस वजह से उन्होए विद्रोह शांत करने और खून खराबा रोकने के मकसद से ‘हजरत ए मुआविया के शक्तिशाली गिरोह से संधि कर ली और उन्हें 10 सालो के लिए इस्लामी हुकूमत इन शर्तो के साथ सौप दी की वे ‘इस्लामी शरीयत, कुरान और पैगम्बर नबी ए करीम के

बताए अनुसार इस्लाम की बेहतरी के लिए काम करेंगे । हजरत मुआविया अपने किसी भी बेटे अथवा उत्तराधिकारी को सत्ता नहीं सौपेंगे I अमीर मुआविया के बाद इस्लामी हुकूमत वापस ‘इमाम ए हसन’ के पास आ जाएगी और उनके ना होने पर सत्ता ‘इमाम ए हुसैन’ को सौपेंगे ।

शर्त ये भी थी की हाकिम सिर्फ़ हुकूमत करेंगे, दीन और शरीयत में किसी किस्म की कोई तब्दीली नहीं करेंगे। यानि दीन और शरीयत की इमाम अली के घराने की ही थी।

रिवायतो मे आता है की इमाम हसन ने 25 हज पैदल किए । सुभान अल्लाह। आप मदीने में ही रहे। मदीने मे हज़रत अली और इमाम हसन से बुग्ज और दुश्मनी रखने वाला मरवान भी था, जो यजीद का करीबी था, इन्हे हमेशा ये डर सताता था की अगर सत्ता इमाम हसन के पास वापस आ गई, तो वे जो ऐश कर रहे थे उसका क्या होगा, लिहाज़ा वे उनके कत्ल के मंसूबे बनाया करते थे।

दुश्मनाने इस्लाम भी नहीं चाहते थे की इस्लाम फले फूले । लिहाज़ा वे भी हर कदम पर षड्यंत्र रचा करते, यहाँ तक की इमाम हसन के खलीफा नहीं होने के बावजूद भी वे इमाम हसन से बुग्ज़ और दुश्मनी रखते थे और उन्हे रास्ते से हटाने की हर मुमकिन कोशिशे भी करते रहते थे । अल्लाह अल्लाह अली के लाल और नबी के इस प्यारे नवासे के साथ ऐसी दुश्मनी और ऐसा खतरनाक षड्यंत्र

वे जानते थे की अली के इस शेर को किसी हथियार से मारा नहीं जा सकता लिहाजा दुश्मनों ने इमाम ए हसन के करीबियों को इनामो इकराम का लालच दिया, और तरक़ीब ये निकाली की उन्हे धोखे से खाने पीने की चीजों मे ज़हर मिलाकर दिया जाए ।

आपको एक दो बार नहीं बल्कि कई बार जहर दिया गया । वह इमामे हसन जो नबी ए करीम सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम के हम शबीह थे जिनको देखना नबी को देखने जैसा था । जिसे आपके नानाजान अपने कन्धों पर बिठाया करते तो कभी अपनी पुष्त पर बिठाते । जिनके गालो को चूमा करते उनके नवासे के साथ ऐसा सलूक ऐसी दुश्मनी कि आप को रास्ते से हटाने के लिए इनाम ओ इकराम के लालच मे ज़ालिम ज़हर दे रहे है ।

आखिर कौन थे ये लोग, यकीनन अमीर मुआविया के बेटे यजीद को इमाम हसन के साथ की गई संधि का इल्म तो होगा ही और वह यह बात भी अच्छी तरह से जानता था कि सत्ता कभी भी वापस इमाम हसन के पास जा सकती है। लिहाजा यह कहना गलत ना होगा की उस जालिम फासिक के इशारों पर ही इमाम हसन को रास्ते से हटाने की कोशिश की गई होगी ।

रिवायतों के मुताबिक 3 बार 5 बार या 6 मर्तबा आपको जहर दिया गया। आखरी बार जो ज़हर दिया गया उसके मुताबिक हीरे को बारीक पीसकर आपके पानी के मशकीजे में डाला गया यह इतना खतरनाक था कि इमाम हसन ने जब पानी पिया तो वो ज़हर पेट में जाने के बाद आपकी अतडियो और कलेजे के टुकड़े टुकड़े हो गए ।

अल्लाह अल्लाह नवास ए रसूल ﷺ के साथ ऐसा सलूक । हालाकी इमाम ए हसन को मालूम था की उन्हे ज़हर देने वाला कौन बदबख़्त है, लेकिन कुर्बान जाइए अली के घराने पर, की इमाम हसन ने जहर देने वाले का नाम नहीं बताया और भाई हुसैन के बार बार पूछने पर यही जवाब दिया, मेरे भाई सब्र करना, मेरे बाद भी जब तक पुख्ता यकीन ना हो कभी किसी को सजा मत देना । इतना ही नहीं आपने फरमाया कि मैंने अपने कातिल को माफ कर दिया है अब उसे कोई सजा मत देना ।

ये है सखावत अली के घराने वालों की इमाम ए हसन की

अपने आखरी वक्त मे उन्होने बेटे कासिम को अपने पास बुलाया और उनके बाजू पर एक ताबीज बांधते हुए कहा

‘ए बेटे कासिम, इस तावीज़ को कभी अपने से अलग मत करना । जब तुम पर सख़्त तकलीफ आए तो ही इस ताविज को खोलना और इसमे जो कुछ लिखा है, उसे पढ़कर, उस पर अमल करना।

फिर आपने अपने छोटे भाई इमामे हुसैन को बुलाया और कहा अये मेरे भाई हुसैन, मुझे अब बाबा अली, माँ फातमा, लेने आए है, और देखो नानजान भी साथ खड़े है फिर आपने फ़रमाया मेरे प्यारे भाई हुसैन सुनो मेरे इन्तेकाल के बाद मुझे नाना जान के पास ही दफनाना लेकिन किसी वजह से यह नहीं हो सके तब मुझे मेरी अम्मीजान माँ फातमा के कदमों के पास दफनाना

सुनकर हुसैन रोने लगे तो हसन ने उनके आंसू पोछे और भाई हुसैन से कहा की ‘इस्लाम को बचाने और अमन चैन, क़ायम रखने की खातिर जो कुछ मुझे सही लगा मैंने किया मगर मुझे मालूम है की अब वक्त ऐसा आएगा कि नाना जान के दीन को मिटाने की कोशिश की जाएगी, फिर आपने अपने खानदान के लोगो की तरफ देखकर कहा दीन को बचाने की खातिर हमारे घराने के एक एक फ़रज़ंद को कुर्बानी देनी होगी तब तब …कहते हुए आपकी साँसे उखड़ने लगी, आपने हुसैन के हाथो को अपने हाथो मे लिया और कहा, भाई हुसैन मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है तुम मुझसे वादा करो जब दीन की ख़ातिर हमारे घराने के बड़े लोगो के अलावा छोटे बच्चो नौनिहालों को भी कुर्बानी देनी पड़ी तो तुम्हारे कदम नहीं डगमगाएंगे । वादा करो मेरे भाई I

इमाम हुसैन ने रोते हुवे भाई हसन से वादा किया और फिर माँ फातिमा और बाबा इमाम ए अली रदियल्लाहु तआला अन्हु’ का ये लाल, आक़ा नबी ए करीम सल्लल्लाहो तआला अलैही वसल्लम का प्यारा नवासा यानि ‘इमाम ए हसन’ ने माहे सफ़र की 28 तारीख सन 50 हिजरी को अपनी आँखे बंद कर ली । (इन्नालिल्लाहे व इन्नाइलैहे राजेउन)

और फिर जब इमाम हसन रदियल्लाहु तआला अन्हु’ को दफनाने जब उनके नाना जान के पास ले जाया गया तो इस पर मरवान और बनी उमैया के लोगों ने ना सिर्फ़ एतराज किया बल्कि जालिम मरवान ने आपके जनाजे पर तीर भी चलाया ।

दुश्मनों के सामने मां साहिबा हजरत आयशा सिद्दीक रदियल्लाहु तआला अन्हुमा भी कुछ ना कह सकी और इमाम ए हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु’ ने भी सब्र किया और जैसा भाई हसन ने कहा था उसके मुताबिक ही आप को जन्नतुल बकी में आपकी अम्मी सैय्यदा फातिमाज्ज़्हरा रदियल्लाहु तआला अन्हुमा’ के कदमों में दफनाया गया।

अब इससे आगे कल से आप इमाम ए आली मक़ाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु’ के वाक़यात समाद फरमाए।

क्रमशः ……

🖊️ तालिबे इल्म : एड.
शाहिद इक़बाल ख़ान
चिश्ती अशरफी
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