OtherReligionSpecial All time

शब् ए मेराज : बलन्दी का सफ़र -🌹 पार्ट -1


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

शब् ए मेराज का वाकया बहोत ही अहेम वाकया है और अल्लाह ने इसके ज़रिये ये बतला दिया की हकीकी माबुद (अल्लाह) और उसके प्यारे महबूब के बीच कोई पर्दा नहीं ,और रब के करीब अगर कोई सबसे ज्यादा महबूब है तो वो है सिर्फ और सिर्फ हम सब के मालिको मुख्तार प्यारे आका जनाब मोहम्मद रसूलल्लाह ﷺ ) I जिसे अल्लाह ने न सिर्फ़ अपने पास बुलाया बल्कि अपना दीदार भी कराया। सुभान अल्लाह। I

रिवायतो के मुताबिक नुबूवत के बारहवे साल 27 रजब को 51 साल 5 महीना की उम्र में नबी ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मेराज हुई ।

अल्लामा क़ाजी मोहम्मद सुलैमान सलमान मंसूरपुरी ने अपनी किताब ’’मुहरे नुबूवत” में मेराज के हवाले से लिखा है, “इसरा” के मानी रात को ले जाने के हैं । जिसका तजकिरा “सूरह बनी इसराइल” में किया गया है ।

“मस्जिदे हराम (मक्का) से मस्जिदे अकसा तक” और यहां से जो सफर आसमानों की तरफ हुआ उसका नाम “मेराज” है ।

मेराज ‘ओरूज” से निकला है जिसके मानी चढ़ने के हैं। हदीस में ’’अरजबीहि” यानी मुझको ऊपर चढ़ाया गया का लफ्ज़ इस्तेमाल हुआ है, इसलिए इस सफर का नाम मेराज हो गया। इस मुक़द्दस वाक़या को ‘इसरा और मेराज’ दोनों नामों से याद किया जाता है।

इस वाक़या का ज़िक्र ‘सूरह नजम’ की आयत में भी है जिसका तर्जुमा कुछ इस तरह से है

’’फिर वह क़रीब आया और झुक पड़ा, यहां तक कि वह दो कमानों के फासले के बराबर क़रीब आ गया, बल्कि उससे भी ज़्यादा नज़दीक इस तरह अल्लाह को अपने बन्दे पर जो वही नाज़िल फरमानी थी वह नाज़िल फरमाई।

सूरह नजम की आयात 13-18 में वज़ाहत है कि हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने (इस मौक़ा पर) बड़ी बड़ी निशानियां मुलाहिजा फरमाऐं सहाबा, ताबेईन और तबे ताबेईन की एक बड़ी तादाद से मेराज के वाक़या से मुतअल्लिक़ अहादीस मरवी हैं ।

क़ुरान ए करीम और अहादीस मुतवातिर से साबित है कि इसरा मेराज का तमाम सफर सिर्फ रूहानी नहीं बल्कि जिस्मानी था, यानी नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का यह सफर कोई ख्वाब नहीं था बल्कि एक जिस्मानी सफर था। यह एक मोजज़ा था कि मुख्तलिफ मराहिल से गुज़र कर इतना बड़ा सफर अल्लाह तआला ने अपनी कुदरत से सिर्फ रात के एक हिस्सा में पूरा करा दिया। सुभान अल्लाह ।

ये उसकी कुदरत है उसके लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं वो जो चाहे तो वक्त का सफ़र बिजली से भी कही ज़्यादा तेज़ी से हो सकता है, और वो जो चाहे तो वक्त का पाहिया थम भी सकता है। अल्लाह ने अपनी इस शाने कुदरत के लिए फरमाया है, वो जब किसी चीज़ का इरादा करता है तो कहता है “हो जा” तो वो चीज़ उसकी कुदरत से पल भर में हो जाती है ।

हो सकता है सफ़र ए मेराज को लेकर कुछ दानिशमंदो को शको शुबहा हो मगर ईमान वालो को इसमें कोई शकों शुबहा नहीं हो सकता है । और वे अपनें रब की इस कुदरत के बारे मे सुनकर सुभानअल्लाह कह उठते है।जिनहे शकों शुबहा है वे एक बार इस बात पर भी ज़रूर गौर करे की क्या आज से 1400 साल पहले किसी ने सोचा था की हजारो मील की दूरी भी कुछ ही मिनटों या घंटो में पूरी हो सकती है मगर आज इंसान दुनिया में कहीं भी काफ़ी कम समय पहुंच रहा है या नहीं ।

सिर्फ दुनिया में ही नहीं इन्सान का सफ़र आज आसमानों में चाँद से लेकर मंगल गृह तक भी मुमकिन हो गया है तो ज़रा सोचे जब इंसान के बनाये हुऐ यंत्रो के ज़रिये कम समय मे लाखो करोड़ो मील की दूरी तय की जा सकती है तो फिर उस खालिक उस मालिक के बारे में सोचे जिसने हर चीज़ बनाई है जो मालिके मुख्तार है उसके लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं।

मुक़द्दस कुरआन में ऐसे बहोत से वाक्यात और मोजज़े मौजूद है जैसे की असहाबे कहफ़ का वाक्या , हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के लिए आग का ठण्डी हो जाना, दरिया पर रास्ता बना देना। हजरत ईसा अलैहिस्सलाम को पैदा करना। उन्हे ज़मीन से आसमान पर उठा लेना जैसे न जाने कितने ही वाकये है जिसे सुनकर अक्ल हैरान हो जाती है मगर ये सब उस मालिक की कुदरत का करिश्मा है । वो जो चाहे कर सकता है। बेशक वो कादिरे मुतलक़ है ।

हमारे आक़ा नबी ए करिमैन ﷺ किस क़दर महबूब है इसे कौन नही जानता। अपनें महबूब के नूर को अल्लाह ने सबसे पहले बनाया मगर आपकों लिबासे बशर में दुनिया में भेजा सबसे आखिर में । जब कही कुछ भी नहीं था, तो भी वो नूर अल्लाह के करीब था और फिर उस नूर ने हर जगह सैर भी की, इसीलिए जब मेराज मे हजरते जिब्रील अलैहिस्सलाम सिद्रतुल मुन्तहा तक जाकर ठहर गए,और कहा की इससे आगे एक इन्च भी बढ़ा तो मेरे पर जल जाएँगे तब भी मेरे आका नबी ए करीम ﷺ ने उनसे ये नहीं कहा की जब आपके पंख जल जायेंगे तो फिर मै तो बशर हूँ भला मै कैसे इससे आगे जा सकता हूँ,? क्योकि आका ए करीम को इसके आगे का रास्ता पता था। हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम की रफ़्तार भले ही सबसे तेज़ हो उनकी रसाई भले ही सब जगह हो, लेकिन इसके बावजूद उन्होने बतला दिया की सिद्रतुल मुन्तहा से आगे उनकी भी रसाईं मुमकिन नही है । आक़ा नबी ए करीम की अजमत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की हमारे आका के अलावा किसी की भी रसाई इससे आगे नही है। और अल्लाह का यूं रूबरू दीदार भी किसी और को नसीब नहीं हुवा I

अगर कुछ लोग शबे मेराज के इस वाकये से इनकार करे तो ईमान वालो को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योकि उस दौर में भी अबुजहल जैसे लोग मौजूद थे जिन्होंने जब इस वाकये को सुना तो यकीन नहीं किया और माज़ल्लाह मज़ाक भी उड़ाया । सिर्फ इतना ही नही अबू जहल ने हज़रत अबु बकर सिद्दीक रज़ि० के पास आकर उन्हें भी ये वाक्या सुनाया ताकि वो भी इंकार कर दे, वाक्या आप भी समाद फरमाए।

अबुजहल आपके पास आया और बड़ी चालाकी से आपसे पूछने लगा

“ऐ अबूबकर , क्या ये बात अकल में आती है के कोई शख्स एक रात में मस्जिद ए हराम से बैतूल मक़द्दस में जाये और फिर सुबह तक वापिस भी आ जाये ?” जबकि तुम भी ये अच्छी तरह जानते हो कि इस सफ़र में तो 40 दिन लगते है ।

“हज़रत अबु बकर सिद्दीक र.अ. ने जवाब दिया

“हरगिज़ नहीं, ये नहीं हो सकता ।

मगर चूंकि ये सवाल अबू जहल ने पूछा था इस लिए आपने उससे पूछा

“ए अबुजहल पहले तु ये बता तुझसे ऐसा कहा किसने ?

अबु जहल खुश होकर मज़ाक उड़ाने वाले लहजे मे बोला

“की ये बात आपके प्यारे दोस्त मुहम्मद ﷺ कह रहे हैं. ।

“जिसे सुन कर अबु बकर (रज़ि०), मुस्कुराये और जवाब दिया

“ए अबुजहल अगर ये क़ौल मुहम्मद ﷺ ने कहा है तो फिर ये झूट हरगिज़ हरगिज़ नहीं हो सकता, उनकी हर बातो पर मुझे पूरी तरह से यक़ीन है। उनकी कही बातो पर पर मेरा ईमान है“ ।

और ए अबुजहल अगर तू भी अपनी बक्शीश चाहता है तो तू भी उनकी कही बातो को मान ले और अल्लाह और उसके रसूल पर अपना इमान ले आ, “

जिसे सुनकर अबुजहल तिलमिला उठा और गुस्से से वहां से चला गया, ।

इस वाकिये से पता चला की की उस दौर में भी जिनके दिलो में ईमान नहीं था वे खुद को अक्लमंद और दानिशमंद समझते थे लिहाज़ा उन्होंने भी मेराज के वाकये पर यकींन नहीं किया तो फिर आज भी तो अबुजहल और उसके जैसे बद्गुमानो की औलादे हर जगह तो मौजूद है ही न तो फिर वे तो एतराज तो करेंगे ही, अगर सिद्दीक ए अकबर भी उस वक्त अबुजहल की बात मान लेते तो शायद आज वो सिद्दीके अकबर न कहलाते।

ख्वाजा हिंदल वली को भी उनके पीरो मुर्शिद उस्माने हारुनी ने अपनी दो उंगलियों के बीच ही ऊपर आसमान से लेकर नीचे ज़मीन तक 70 हज़ार कायनातो के मंज़र दिखा दिये थे तो फिर अपने महबूब को रब्बुल आलामीन क्या अपनी कुदरत का मंज़र नहीं दिखला सकता है ?

तो ए ईमान वालो बेशक शब ए मेराज़ एक हकीकी सफ़र है। शबे मेराज में क्या क्या हुवा आइये अब इसे भी सुने और अपने आक़ा की शान और अजमत पे झूम जाए। इंशाअल्लाह अगर आपने पूरा वाकया पढ़ लिया तो आपका ईमान ताज़ा हो जाएगा ।

क्रमशः…

🖊️ तालिबे इल्म :-एड.शाहिद इकबाल खान
चिश्ती-अशरफी

🌹🌲🌹🌲🌹🌲🌹🌲

Related Articles

Back to top button