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तब उम्र बस ग्यारह बारह की थी आंखो में सपने बसते थे…

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तब उम्र बस ग्यारह बारह की थी
आंखो में सपने बसते थे ,
निश्चित की राह को टटोलती सी
चेहरे पर मासूमियत खिलती थी ।
स्कर्ट हमारी हरी रही और ,
शर्ट सफेद हुआ करती थी ,
किशोरावस्था की दहलीज पर खडी
वो सालेम स्कूल की लडकी थी…

स्कूल था पूरी दुनिया हमारी, और
अब माँ नही सखियाँ हमारी हमराज थी
स्नेहिल मिस हमारी शिल्पकार थी
वो कच्चे घडे को पकाना जानती थीं
इस मंदिर में हम तन और मन से बडे हुए
कलियाँ काटों में खिलना सीखती थी
काॅलेज में उडने तैयार खडी ,
वो सालेम स्कूल की लडकी थी…

काॅलेज से निकल कुछ सखियों ने
घर की चाबी कमर में बांधी थी
लेकिन कुछ ने घर और बाहर ,
दोनों सम्हालने की ठानी थी
हम लडकियों ने जिसे छुआ न हो
ऐसी कोई ऊँचाई न थी
पल पल गौरवान्वित करने वाली
वो सालेम स्कूल की लडकी थी…

अब नाक पर शान से बैठा चश्मा है
बालों में बिखरी चांदी है ,
उमर का आंकड़ा साठ को छूता है
गोदी में नाती पोती हैं ,
लेकिन बचपने का आंगन भूला नही
एक दूजे को हमने गुहार लगाई है
समाधान आखों में छलकाती,
वो लडकी सालेम स्कूल आई है
वो फिर सालेम स्कूल आई है ….
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यह वह कविता है जो मुझे कल मिली थी, डॉ. मालेका कयूमी दीदी ने इसे अमेरिका से भेजा है, उन्होंने इसे आगे भेजा है, उन्हें खुद नहीं पता कि ऊपर की पंक्तियों में किसने अपना दिल डाला है। मुझे पता है कि सालेम की हर लड़की को ऐसा ही लगता है, मैं आपको भेज रही हूं सब, अपनी आंखों में आंसू और चेहरे पर मुस्कान के साथ इसके हर शब्द का आनंद लें। आप सभी को प्यार। 🙏 डॉ. निशा मुखर्जी

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