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ज़िक्र ए शोहदा ए कर्बला✒️ -पार्ट-10

दीं पनाह अस्त हुसैन

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अली को खालिक ए अकबर का ऐन कहते है
हसन को कल्ब ए रिसालत का चैन कहते है
लुटा के घर को “दींन ए खुदा”की लाज रख ली,
ज़ुबान ए “इश्क” में, हम उसे“हुसैन” कहते है”….

कूफे से एक के बाद एक ख़त आ रहे थे जिनमे कुछ खत काफ़ी नामी गिरामी लोगो के भी थे, सभी में एक ही बात लिखी गई थी की

ए हुसैन कल को मैदान ए महशर में जब अल्लाह हम से पूछेगा कि तुमने यज़ीद के हाथों पर बैत क्यों करी

तब हम अल्लाह से कहेंगे कि हमने तो हुसैन को कूफे बुलाया था । *हम तो हुसैन से ही बैत होना चाहते थे मगर हुसैन कूफे नहीं आए तो मजबूरन हमें यजीद के हाथों पर बैत करनी पड़ी।


  • लोग सोचते है हुसैन ने हज़रत मुस्लिम को कूफ़े के हालात की खबर लेने के लिए भेजा गया था।

मेरा ये मानना है यह सही नहीं है हुसैन को तो पहले ही सब कुछ पता था, बल्कि आशुरे के दिन ही शहादत होनी है हुसैन ये भी जानते थे।

तो फिर हुसैन ने हजरत मुस्लिम को क्यों भेजा था ?

इसका जवाब है

हुसैन ने हजरत मुस्लिम को अपना वकील बनाकर कूफे भेजा था ताकि जो लोग हुसैन के नाम पर बैत करना चाहते हैं वह बैत कर ले ताकि उन्हे ये शिकायत ना रहे की हमने हुसैन के हाथो बैअत नही की।
हुसैन रहमतिल्लील आलमिन के नवासे है लिहाज़ा उन्होने कूफे वालो की बेवफ़ाई के बदले भू उनसे वफ़ा हो की।
जब हज़रत मुस्लिम के हाथो कूफा मे पहले ही दिन 12000 से ज्यादा कूफे वालों ने हुसैन के नाम पर बैत की । हुसैन इसे भी देख रहे थे। और फिर 40000 लोगो ने बैत की हुसैन इसे भी देख रहे थे। हुसैन ये भी देख रहें थे की जिन्हें बैअत करनी थी वो कर चुके । और कल को रोज़ ए महशर में कोई ये नही कह सकेगा की हम तो हुसैन से बैअत होना चाहते थे मगर मजबूरन यजीद से बै अत करनी पड़ी।

इमाम आली मकाम हुसैन को रास्ते में ही हजरत मुस्लिम की शहादत की खबर भी मिल चुकी थी। जो लोग हुसैन के नाम की बै अत किए है वो भी साथ नही देंगे। हुसैन को ये भी बतला दिया गया था मगर इसके बावजूद उन्होने कूफ़े जाने का इरादा नही बदला ।
आख़िर क्यों?

क्योंकि इमाम हुसैन हमे ये बतलाना चाहते थे की जिस तरह इमाम उन्हे यजीद का कोई खौफ नहीं था उसे तरह हमे भी ज़ालिम फासिक़ हुक्म रा से खौफ नहीं होना चाहिए।
यजीदीयत को खत्म करने, और इस्लाम का परचम बुलंद करने, दीन को बचाने बेखौफ होकर नाना से किया वादा निभाने शहादत का जाम पीने हुसैन कूफ़े जा रहे थे ।

आइए आगे क्या कुछ हु वा अब उस पसे मंज़र को भी देखे।

रास्ते में हज़रत हुर् ने आपको रोका और रास्ता बदल कर जाने कहा इस तरह हुसैनी काफिला आगे बढ़ता रहा और नेहरे फुरात के करीब इमाम हुसैन ने ख़ेमे लगाने कहा, ये जगह कर्बला थी भला हुसैन यह नाम और जगह कैसे भूल सकते थे यहां की मिट्टी की खुशबू भी हुसैन पहचानते थे ।

कर्बला में पहुंचने के बाद इमाम हुसैन ने यजीदी सेना के सामने एक बार नहीं बल्कि रिवायतो के मुताबिक 9 बार खुतबे दिये, आख़िर क्यों? क्योकि उस वक्त भी हुसैन को अपनी फिक्र नही थी, बल्कि नाना जान की उम्मत की फिक्र थी, हुसैन जानते थे की यजीद की सेना में वो लोग भी शामिल थे जिनके वालिद उनके नानाजान के जानिसार सहाबा हुआ करते थे और इमामे हुसैन उन्हे उस वक्त भी जहन्नम की आग से बचाना चाहते थे ।

हुसैन कर्बला में जंग लड़ने नहीं आए थे बल्कि हमेशा के लिए अमन कायम करने कूफे पहुंचे थे।

इमाम हुसैन को बुलाने, उनसे बैत कर लेने के बावजूद कुफे वाले इतने बुजदिल थे कि यह जानते हुए भी की हुसैन आने वाले है किसी ने भी हुसैन की खबर नहीं ली यहां तक की यह मालूम हो जाने के बावजूद की हुसैन कूफे के करीब आ चुके हैं कोई भी हुसैन से मिलने तक नहीं आया ।

मगर सुन लीजिए की इमाम हुसैन कर्बला में मजलूम नहीं बल्कि मुख़्तार बन कर आए थे। अपने नानाजान से किया वादा निभाने हुसैन कर्बला आए थे और रजा ए इलाही को पूरा करने कर्बला आए थे।

याद रहे जिस दीन को हुसैन ने बचाया उसे यदि हमने मजबूती से थामें रहा तभी हम सही मायनों में हुसैनी होंगे। वरना सिर्फ़ नाम के हुसैनी होंगे। बेशक यही इमाम हुसैन का पैगाम है जिसे हर एक तक पहुंचाना है और यक़ीनन वो वक़्त भी आएगा जिसके बारे में कहा गया है

ज़रा लोगों को बेदार तो हो जाने दो, हर कौम पुकार उठेगी हमारे हैं हुसैन, हमारे है हुसैन।

इधर कर्बला में आली मकाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने “अलम” भाई अब्बास के हाथों में देते हुए कहा “भाई अब्बास ये परचम अब तुम्हारे मज़बूत हाथों में रहेगा । अब्बास ने परचम लिया और उसे आसमान की तरफ बुलंद किया तो इमामे हुसैन ने देखा कि उस अलम के नीचे सारी मखलूक सिमट आई है ।

तमाम फरिश्ते अंबिया और जिन्नात भी इस अलम के नीचे मौजूद है। बेशक वे सभी कर्बला के मंजर को देख भी रहे थे और बतला भी रहे थे की जो भी दीन पर होगा वो इस अलम के नीचे आ जाएगा और जो दीन पर नही होगा वो अलम के नीचे नही आने वाला ।

मोहर्रम की 7 तारीख़ से हजारों यजीदी सिपाहियों ने नहरे फुरात के किनारे कब्ज़ा कर पानी पर पहरा लगा दिया गया था, अल्लाह अल्लाह आले रसूल और उनके घराने वालो के साथ ऐसा सलूक।

कर्बला में इस हुसैनी अलम के नीचे बजाहिर कौन कौन थे, और उन्होने किस तरह शहादत पाई आइए अब ज़रा उनका भी ज़िक्र सुने।

मेरा दावा है की इन सभी शोहदा ए कर्बला के बारे में इतना विस्तार पूर्वक शायद आपने नही सुना होगा लिहाज़ा गुज़ारिश है की पूरा ज़रूर पढ़े।

मोहर्रम की 9 तारीख़ मगरीब के बाद 10 तारीख़ की शब लग गई हर तरफ़ नक्कारो की आवाजे आनी शुरू हो गई। इस नक्कारे की गूंज का मतलब था की यजीदी अब हुसैनी ख़ेमे के काफ़ी क़रीब आकर जंग का ऐलान कर रहे है।
हुसैन ने उनसे कहा की हम आज की रात अपने रब इबादत में गुजारना चाहते है।

एक तरफ़ यजीदी सेना में 22000 लोग थे दूसरी तरफ़ सिर्फ़ 72 लोग थे। मगर फिर भी यजीदी कमांडर ने और अधिक सेना भेजने कहा था जो की आने वाले थे लिहाज़ा सुनकर यजीदी भी तुरंत तैयार हो गए।
उस रात एक तरफ़ यजीदी मदमस्त होकर खूब खा पी रहें थे तो दूसरी तरफ़ इमाम हुसैन और उनके साथी भूखे प्यासे अपने रब की इबादत मे मशगूल थे। किसी के चेहरे पर किसी तरह का कोई खौफ नहीं था बल्कि रब से बड़े तो बड़े छोटे बच्चें भी दु वा कर रहें थे या अल्लाह हमे पहले शहीद करना।

अल्लाह अल्लाह क्या मंज़र था और क्या हौसला था हुसैनियो का। सभी को फख्र। इस बात का था की वे हुसैन के साथ है।
यहां तक की फजर का वक्त हो गया सभी ने तयम्मुम किया और इमाम हुसैन के पीछे नीयत बांधकर नमाज़ अदा की।

दूसरे दिन सुबह 10 मोहर्रम को जब सूरज तुलू हुवा तो जंग के नक्कारे बज उठे।

एक तरफ़ सिर्फ़ 72 तो दूसरी तरफ़ 22000 का लश्कर फिर भी इन 72 के सामने यजीदी लश्कर के सिपाहियो के दिल खौफ से लरज उठे।
आईए एक एक जाबांज बहादुरों की जंग मे बहादुरी का मंज़र देखे।

❤ हज़रत औन-ओ –मोहम्मदबिन ज़ाफर की शहादत:

मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ- मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके वालिद हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवजवान बेटो को उस समय भेजा जब इमाम हुसैन कूफे की ओर जा रहे थे और कहा मेरे बेटे अगर हुसैन के किसी काम आ सके तो इससे बड़ी बात क्या होगी ।
हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र यह दोनों इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे ।
हज़रत औन इमाम हुसैन की चहीती बहन हज़रत ज़ैनब के बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था ।
दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे ।

दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की किताबों में एक ही साथ लिखे जाते हैं। मजलिसों मे भी ‘औन-ओ-मोहम्मद’ का ज़िक्र इस तरह किया जाता है कि सुनने वालों को भी यह दोनो नाम एक ही लगते है ।

जैनब ने जब अपने इन दोनों बेटो को जंग के लिए अपने हाथो से तैयार करके जब भाई हुसैन के पास भेजा तो हुसैन ने उन्हे वापस खेमे मे भेज दिया ।

जैनब ने भाई हुसैन को खेमे मे बुलाया और कहा भाई मेरे दोनों बेटो को जंग मे जाने की इजाज़त देकर उन्हे आज नानाजान के हाथो जामे कौसर पीने दो । दोनों भाइयों ने भी अपने मामूं हज़रत हुसैन से ज़िद की और उन्हे अपने वालिद का वास्ता दिया हुसैन भला अपने इन भांजो को इजाजत किस तरह से दे सकते थे

आखिर वे काफ़ी कम उम्र के बच्चे ही तो थे, हुसैन के चहेते भांजे हुसैन उन्हें भला किस तरह इजाज़त दे सकते थे मगर जैनब ने जब नानाजन का वास्ता दिया और बच्चो ने भी जब काफ़ी ज़िद की तो हुसैन ना चाहते हुए भी इन बच्चो को मैदाने कर्बला मे जाने की जैसे ही इजाज़त दी दोनो खुश होकर जंग के मैदान में कूद पड़े ।

जब ये दोनों बहादुर मैदान मे पहुचे तो दुश्मनों से इस तरह जंग की कि यजीदी फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया । यजीदी ये सोच भी नही सकते थे की ये कम उम्र के बच्चे उन्हे धूल चटा सकते है और आख़िरकार बहादुरी से लड़ते लड़ते यह दोनों भाई शहीद हो गए।

( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

❤ अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिनअक़ील

यह इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन की बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं । उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच साल के करीब होगी । जब बेटे हज़रत अली अकबर की लाश इमाम हुसैन से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें (शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया ।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

❤ मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील:

यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए ।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

जाफ़र बिन अक़ील:

अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया ।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

अब्दुलरहमान बिन अक़ील:

अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान में अपने जोश और ईमानी जज़्बे के साथ दुश्मनों पर हमला किया । इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और फिर यह बहादुर भी शहीद हो गए ।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

❤ *मोहम्मद बिन अबी सईदबिन अक़ील:*

अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

अबू बक़र बिन हसन:

खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है। इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

मोहम्मद बिन अली:

यह इमाम हुसैन के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था। इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपनी आखिरी वक्त में अली से ये वायदा लिया था की वे दूसरी बहादुर औरतो से निकाह कर लेंगे ताकि जो बेटे पैदा होंगे वो इस्लाम की हिफाज़त बहादुरी से कर सके ।

जिसमे हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करने का इसरार भी खुद फातिम्माज्हरा रदीयल्लाहों अन्हों ने किया था । मोहम्मद बिन अली ने भी बहादुरी से जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर उन्हे शहीद कर दिया।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

अब्दुल्लाह बिन अली:

अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे। जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था। उसने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा लिखवा लिया था।

कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन के खेमे के पास आया और आवाज़ दी और बोला कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे ? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है ? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर। हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं। इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटो ने यह साबित कर दिया की हक़ कि राह में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं है ।

वे कर्बला में इस लिए आये क्योकि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन हक़ पर हैं। कर्बला के मैदान मे जब जंग शुरू हुई तो हज़रत अब्बास ने अपने भाई अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में आए और बहादुरी से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

उस्मान बिन अली:

यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे। उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा। उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया। आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

जाफ़र बिन अली:

यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे। उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”। इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी बहादुरी की मिसाल अपने खून से लिखते हुवे हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए।
( इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैही राजेउन )

क्रमशः ……

🖊️तालिबे इल्म: एड.शाहिद इकबाल खान, चिश्ती-अशरफी

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